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मंगलवार, 26 जून 2012

टुनटुन

टुनटुन अपने

नन्हे नन्हे हाथो से

अपनी ही धुन में मगन

कालोनी क़ी सख्त सड़को पर

झाड़ू लगाये जा रहा था

मुन्नी बदनाम हुई के गाने को

रेंग रेंग कर

गाये जा रहा था

उसके कदम भी आज

पता नहीं क्यों थके थके से

प्रतीत हो रहे थे

मुझे ऐसा लग रहा था कि

उस गाने क़ी एनेर्जी से ही

शायद उसके पाव

चल रहे थे.



पर आज उसके गाने में

पहले जैसी बात नहीं थी

वरना और दिनों में तो

जितना झूम कर

उसके हाथ चलते थे

उससे कही ज्यादा उसके

सुर और ताल चला करते थे

शायद उसी से वह स्वयं

के लिए उत्साह पाता था

तभी तो कालोनी के एक सड़क को

साफ करने के उपरांत

वह दूसरी सड़क पर

एक नयी उर्जा से तुरंत

लग जाता था



पिछले काफी दिनों से

जहरीले शराब कांड में उसके पापा क़ी

मृत्यु के बाद उसकी माँ

अपने साथ उसे काम पर ले आती

मैंने कई बार उससे

इस बात क़ी शिकायत भी क़ी

पढाई के बात पर

गरीबी का देकर हवाला

उसने मेरी बात को

हर बार ही टाला

कई बार मैंने पैसा देकर

टुनटुन को पढ़ाने के लिए

उससे कहता रहा

पर हर बार उसका एक नया

बहाना सहता रहा

इसी क्रम में टुनटुन

मेरे करीब होता गया

मै उस बच्चे कि तक़दीर पर

अफ़सोस जाहिर करते हुए

उसे अपनी बात समझाने के लिए

क्रमशः उसके और बड़े होने क़ी

प्रतीक्षा करता रहा



मैंने मंदिर से लौटते हुए पूछा

क्या बात है टुनटुन

पिछले तीन चार दिनों से

तुम्ही अकेले ही आ रहे हो

कैसे तुम पूरा काम कर पा रहे हो

टुनटुन ने झाड़ू किनारे रख

अपने मैले पैंट से हाथ साफ कर

मेरी और हमेशा क़ी तरह

हाथ बढ़ा दिया

मैंने भी प्रसाद के पड़े को

उसके हाथ में रख दिया

प्रसाद खाकर

करीब के सरकारी नाले में

पानी पीकर

टुनटुन बोला

माई के कई दिना से

बुखार आवत आ

मौलवी साहेब से झरवा के

पानी पिलवा रहा पर

बुखार उतरते नाही बा

माई कहीं कि

टुनटुन तुही चला जा

अकेल झाड़ू मार आ

नाही ता ठिकेदरवा नागा लगा देही

हमनी के जौन थोड़ बहुत

ओकरा कमीशन कटला के

बाद मिलत आ

उहौ जाना डूब जाई

यही वादे हम अकेल आवत आई

पर साहेब माई बिना

मन लागत नाही

ठीक से खानवो मिलत नाही

कहते कहते टुनटुन की

आंखे भर आई



मैंने काम के बाद उसे

अपने घर आने का इशारा किया

स्वयं की बेबसी पर

खीजते हुए

यह सोचते हुए

घर की और रूख किया

कि हम बनाकर हवाई किले

सतरंगी सपनो क़ी देते रहेंगे नजीर

राजनीति की बिसात पर

बिछा ले हमारे ये रहनुमा

चाहे कितने भी वजीर

इस तरह के न जाने कितने टुनटुन

बेबस और लाचार

आँखों में रंग रंग के सपने लिए

जवान होने के पूर्व ही

बूढ़े हो जायेंगे

अपनी जिंदगी ये क्या

खाक जी पाएंगे.



डा. रमेश कुमार निर्मेश

गुरुवार, 21 जून 2012

दूसरे गाँधी


तपती जेठ की

दोपहरी थी

अपने शीर्षतम बिंदु पर

गरम हवा चल रही थी

सूरज क़ी तीव्रतम तपिश से

बदन तप रहा था

तन का एक एक

रोम झुलसा जा रहा था



परशान परिसर में

एक वृक्ष क़ी छाया पकड़

मै आराम फरमाने को

उत्सुक और व्यग्र



देख रहा था

अपनी अतिरेक हरियाली से

पूरे शहर को

जो कभी देती थी पोषण

बनाये रखती थी

पर्यावरण का संतुलन

परिसर क़ी उस हरियाली का

हो रहा था तेजी से शोषण



देख रहा था

नित एक नए भवन क़ी

नीव पड़ते हुए

महामना क़ी बगिया को

कंक्रीट के जंगल में

बदलते हुए

सामने ही खेल के एक मैदान में

एक नूतन भवन सम्पूर्ण

साकारता क़ी और अग्रसर था

तेजी से वह काम

चल रहा था



बेदम कर देने वाली

इस जलती धूप में

दो तीन आधुनिक विशाल और

विकासशील भारत क़ी स्यामवार्ण

मगर सुगढ़ ललनाये

गोद में इस आर्यावर्त के

भविष्य को छिपाए

नंगे पाव ईट ढो रही थी

शिक्षा के मंदिर में

बरबस शिक्षविदो के सर्व शिक्षा

अभियान के दावे क़ी

हसी उड़ा रही थी



साथ ही बड़े हसरत से

स्कूटी पर सवार

पूरे बदन को ढके

जींस पैंट के साथ

शानदार काला चश्मा चढ़ाये

इसी आधुनिक भारत क़ी ही

आधुनिक ललनाएं

एक मोहक खुशबू बिखेरते हुए

एक एक कर

उनके पास से गुजरती जा रही थी



स्वयं को कोसते हुए

गर्मी से निढाल हो कभी

वह बैठ जाती

कभी ठीकेदारों के डर से

बिना सुस्तायें काम पर

पुनः लग जाती



संभवतः

उन्हें इंतजार किसी तरह

दिन ढले

गर्मी से रहत मिले

साथ ही पूरी मजदूरी क़ी चाह

पेट भरने के आस लिए वह भी

इसी आधुनिक आर्यावर्त क़ी ललनाये थी

मगर भारतीय वांग्मय और

सनातनी संस्कृति के दृष्टिकोण से

एक और दूसरे गाँधी को अपने उद्धार हेतु

अपने आंचल में छिपाए

शायद अपने पिछले जन्मो के

कर्मो का फल ही तो

भोग रही थी

डा रमेश कुमार निर्मेश

सोमवार, 11 जून 2012

शूल

एक एक कर खेत के एक एक टुकड़े बिकते जा रहे थे खेतों की जगह कालोनी बसते जा रहे थे अभी पिछले साल तक रम्भू जिसे सीवान कहता था आज उदास नजरो से उसी में अपना बाग ढूड रहा था काल ही तो वह अपने बीच में फसे अंतिम खेत क़ी रजिस्ट्री कर आया था रास्ता उसका बन्द कर गाँव के विकास के नाम पर औने पौने दम पर भूमाफियाओं ने हड़का कर उस बची जमीन को उससे लिखवाया था हताश रम्भू अपने एकमात्र बचे कच्चे मकान के सामने बैठा अपने खेत खलिहान और सीवान को तेजी से कंक्रीट के जंगलो में बदलते देख रहा था इन आधुनिक जंगलो को ही विकास कहते है शायद यही सोच रहा था रह रह कर उसे अपने बचपन और जवानी के दिन याद आ रहे थे किस तरह गाँव के बच्चे दूर खेत खलिहान बाग बगीचों और सीवानो में इतराते थे कुछ समय के बाद गाँव का नामो निशान मिट गया उसकी जगह एक कंक्रीट का जंगल अशोकपुरम के नाम से बस गया रम्भू अब बूढ़ा हो चला था जमीन बेचने के एवज में मिले पैसो से बच्चों का समय दारू मुर्गे में जम कर कट रहा था गाँव निठल्लों और कामचोरों से भर गया था जीवन यापन का कोई और तरीका नहीं देख आज रम्भू क़ी पत्नी रामरती अपनी बहू के साथ कभी जिसकी मालकिन थी आज उसी कालोनी में घूम घूम कर कही बर्तन माज रही थी तो कही झाड़ू पोछा लगा रही थी किसी तरह उन घरो से मिले जूठे खानों और तुक्ष पैसों से अपने परिवार का भरण पोषण कर रही थी विकास क़ी इस विडंबना पर रामरती हताश सोचती कि कल तलक उसके यहाँ ताजे साग सब्जीयों के लिए जो लाइन लगाते थे आज उन्ही के झूठे बचे भोजन से उसके पेट भरते है थोड़ी सी देर हो जाने पर उनकी बीबियों के ताने शूल बन ह्रदय में चुभते थे