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सोमवार, 23 मई 2011

आद्यांत

पिछले पंद्रह दिनों से
बेटे के यहाँ स्टोर रूम में पड़ी थी
दो रूम का फ्लैट और
उस पर गर्मी सड़ी थी
बेटे के बड़े आग्रह पर
गाँव से शहर अपने दमे के
इलाज के लिए आयी थी
पर यहाँ के आबोहवा में
गाँव कि बात कहाँ थी
पूरी कायनात वायु जल
ध्वनी प्रदुषण से बजबजा रही थी
पर बेटे बहू और पोते के
सानिध्य और सुख कि चाहत ने
बेटे के बेमन से ही सही
किये गए आग्रह से वह
यहाँ आ तो गयी
पर ठीक होने से रही

जेठ की दोपहरी में
आराम फरमा रहे थे
बेटे बहू सब अपने कमरे में
बच्चो के साथ कूलर कि शीतल हवा में
वह खोमोश एक फालतू
वस्तु की तरह स्टोर में लेटी थी
एकाएक खांसी ऐसी आयी की
रोके न रुक रही थी

बाहर निकल कर आंगन में
जैसे ही शीशे के ग्लास को
पानी के लिए हाथ लगाया
उम्र का तकाजा पैर लडखडाया
किसी तरह अपने को
गिरने से बचाया
पर बचा नहीं सकी उस
दो रुपल्ली के गिलास को
जिससे बुझाने चली थी
अपनी प्यास को

छन् की आवाज के साथ
चकनाचूर हो पूरे आंगन में
शीशा फ़ैल गया
बहू तो बहू बेटे न भी
उसे आड़ो हाथ लिया
कब तोहे अम्मा समझ आइये
मुनिया क मम्मी तोहे का का बताइए
दुई घड़ी चैन न रहि सकित हो
अकल कहाँ बेच दई हो
कई बेर कहा की तनिक
देख कर चला कर
आखिर संतोष होई गवा न
गिलास तोड्वा कर

बहू भी साथ में बरसती रही
माँ बस सोचती रही
बचपन में केतना गिलास
अउर केतना बर्तन लल्ला तोड़ चुका हयन
कबौ एका मार त दूर
डटो न पड़ा रहेन
कितनी परेशानियाँ अउर प्यार से
एका हम पाला रहा
आज उहे बबुआ हमका नसीहत दै रहा
बचपन में जेका हसी आंसू अउर
हाव भाव से हम ओका जरूरत
भरपूर मजे मा भापत रही
उहे बबुआ आज हमरी समझ में
खोट अउर कमी निकलत हई
सोचते सोचते माँ की आंखे
आंसुओं से भर गयी
पर उसे देखने की फुर्सत किसे थी

सच उस माँ न न जाने
कितने जतन से उसे पाला था
अपनेआप को उस पर
कुर्बान कर डाला था
आह्लादित मनसे अनवरत
शैशवावस्था से बालपन तक
करती रही थी जिसके मलमूत्र का
खुशी से विसर्जन
उसके एक एक आंसू पर करती रही
अपनी सौ सौ खुशियाँ अर्पण
बलैया लेते जिसकी थकती
नहीं थी दिन रात
उसे पता ही नहीं चला कि
अचानक कब आ गया
युवा रात्रि के उपरांत वृद्ध यह प्रभात

कृश हो चुके हाथो से
फर्श बुहार कर साफ करती रही
बहू कि आवाज थी कि
बंद होने से रही

आद्यांत
उसे लग रहा था कि वह भी
स्टोर की एक फालतू वस्तु बन चुकी थी
जिसकी जरूरत यहाँ किसी को नहीं थी
जबकि गाँव के खेत खलिहानों में
खेलते बच्चे और
पनघट पर पानी भरती बहुए
कल तक हर सुख दुःख में
साथ रहती थी
उसे दादी अम्मा कहते नहीं थकती थी
मन ही मन
कल सुबह ही वह भारी मन से
शहर छोड़ने का फैसला
कर चुकी थी

5 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मार्मिक प्रस्तुति ... वक्त सबका हिसाब करता है ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 24 - 05 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच

SAJAN.AAWARA ने कहा…

BAHUT KHUB LIKH HAI AAPNE. . AAJKAL PARIWARO KA YAHI HAL HAI. . JAI HIND JAI BHARAT

Unknown ने कहा…

मार्मिक प्रस्तुति , शब्द नहीं है कुछ कहने को ,

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन और मार्मिक प्रस्तुति