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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

वेदना से नवोन्मेष की शिखर यात्रा

सहसा ठिठक गए पावँ
देख सामने एक नाव
एक वृद्ध को को तमाम बच्चो के साथ
करते देख अटखेलिया
करते गलबहिया

अरे ये तो वही है
जिसे मेंटल अस्पताल में
देखा था कुछ महीने पहले
चीखते जोर जोर से
पूछने पर नर्से ने बताया
हाल कुछ इस तरह सुनाया

इसके दोनों बेटें निकट भूत में
सीमा पर हो गए शहीद
नाम इसका है अब्दुल वाहिद
पत्नी पहले ही चल बसी थी
यही इनकी आखिरी उम्मीद बची थी
इसी सदमे ने कर दिया इसे पागल
सुन मन हो गया बेकल
दिल दहल उठा था
मैं मौन निस्तब्ध बस
उसे ही देखे जा रहा था

अंत में संवेदना व्यक्त करते
साथ लाये फलो को
उसे ही अर्पित करते
अपने मरीज को देख
मैं बाहर हो गया था
समय के साथ उस घटना को
भी भूल गया था

पर आज वह घाव
पूजने के बजाय हरी हो गयी
आंखे पुनः भर गयी
मुझे लगा की शायद
वह पूरा पगला गया था
क्योकि जिसे देखा था
भीषण दुःख और अवसाद से ग्रसित
वह तो खुल कर आज हस रहा था

जिज्ञासवास मैं उसके करीब आया
उसका देख व्यवहार आंख भर आया
मैंने कहा चाचा आप कैसे है
बोला पहले से बेहतर है
बच्चो के जाने के बाद
जीवन में भर गया था अवसाद
एकबारगी लगा था
जीवन हो गया समाप्त
पर अंतर्मन में जो शक्ति थी व्याप्त
उससे मुझे मिले निर्देश
जीवन में करने है अभी और कुछ शेष

पुनः एक दृढ संकल्प के साथ
तैयार हो गया जीवन से करने दो दो हाथ
बेशक मैंने अपने दो लाल है खोये
पर हमारे पारम्परिक मूल्य
वसुधैव कुटुम्बकम ने
ये अनेक लाल है मुझको दिए
बेटा अब इन अनाथ बच्चो की
देखभाल करता हूँ
अपने पेंसन के सभी पैसे
इन्ही पर खर्च करता हूँ

देश पर मर मिटने हेतु
इन्हें ही प्रेरित करता हूँ
ताकि इन्हें रोजी रोटी के साथ साथ
देश की सेवा का अवसर भी मिल सके
बेटा यह इस देश का है पराक्रम
जहाँ लाइन लगाकर
फौज में भर्ती होकर
जान देना ही है इन कर्णधारों का
प्रारब्ध और उपक्रम
देश की वर्तमान स्थिति से तो
आप हो ही परिचित
इन नेताओं और नौकरशाहों से
हो नहीं आप अपरिचित
देश कैसे रहेगा सुरक्षित सत्रुओं से
इन्हें तो फुर्सत है नहीं
अपनी जेबे भरने से
मची है चारों ओर जो मारा मारी
ऐसे परिवेश में मेरा
छोटा सा प्रयास रहेगा जारी
मरना तो सभी को है ही एक दिन
कम से कम ये देश को बचायेगे
इस आर्यावर्त के इतिहास को दोहरायेगे

अपलक खामोश मैं
उस वृद्ध को देख रहा था
उसके जीवन का फलसफा
समझने का प्रयास कर रहा था
देख रहा था उसके जीवन की
कामना और लालसा
वेदना से नवोन्मेष की शिखर यात्रा
उसके जीवन की जिजिविषिका को
अपने से कम्पयेर कर रहा था
उसके सामने अपने को
बहुत ही तुक्ष
महसूस कर रहा था

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

इतना बड़े बलिदान के सामने स्वयं को तुच्छ सा अनुभव होना स्वाभाविक है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत अच्छी और संवेदनशील प्रस्तुति ..


कहीं कहीं वर्तनी की अशुद्धि खटकती है ..
पर आज वह घाव
पूजने के बजाय हरी हो गयी

घाव हरा हो गया ...

हस- हँस

पेंसन -- पेंशन

सत्रुओं- शत्रुओं

तुक्ष -- तुच्छ

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

कविता तो अच्छी है...नए साल की बधाई !!