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रविवार, 19 अप्रैल 2009

किताबों की कीमत कम कीजिये हुज़ूर

साहित्य समाज का दर्पण होता है ,लेकिन साहित्य का दर्पण होना तभी सार्थक है जब वह जन सामान्य के हाथ में हो । अभिप्राय यह है कि वह आम आदमी की पहुच में हो , इन दिनो साहित्यिक पुस्तको की कीमत इतनी अधिक हो गई है कि अब पुस्तक खरीद कर पढ़ना आम आदमी के बजट में रहा ही नही । वैसे आटा दाल चांवल शक्कर कुछ भी तो सस्ता नही है फिर महंगाई की तोहमत पुस्तको पर ही लगाना ज़रा ज़्यादती ही होगी । लेकिन पुस्तको की तुलना आटा दाल से करना भी ठीक नही है । दोनो का मुकाम आदमी की ज़िंदगी में अलग अलग है , दोनो का महत्व अलग अलग है । एक वर्ग एैसा भी है जिसके अंदर अच्दे से अच्छा साहित्य को पढ़ने की भूख हमेशा रहा करती है । आज वह वर्ग भूखा है । वह भूखी नज़रो से किताबो की दुकान में रखे कबीर के दोहे , गालिब का दीवान ,अमृता प्रीतम की कहानियाू , मंटो का सम्रग साहित्य ,कमलेश्वर, मन्नू भंड़ारी , जावेद अख्तर , गुलज़ार ,अमृत लाल नागर , राही मासूम रज़ा , जैनेन्द्र , प्रेमचंद , मुक्तिबोध ,मीर ,बहादुर शाह ज़फ़र वगैरह वगैरह को मासूम निगाहो से निहार रहा है । उसका जी करता है कि दोनो हाथो से इस अनमोल खज़ाने को समेट लू,, जो चाहे वह किताब रैक में से खीच लू , कोई रोकन टोकने वाला न हो तो सुहाग के नुपुर ,आधा गांव ,गुनाहो का देवता , अंधा युग ,लखनउ की पांच राते ,शतरंज के मोहरे ,आपका बंटी ,इसमें से वह किसी को भी नही छोड़ेगा उसे इन सब को पढ़ना है । शौकीन आदमी बड़ी हसरत से अपने पसंदीदा लेखक की किताब हाथ में लेता है , बेहद अदब और एहतराम के साथ उसके मुख्य पृष्ठ पर हाथ फेरता है फिर पीछे की तरफ अपने लेखक की फोटो देखता है और वही खड़े खड़े सारांश पढ़ लेता है , तत्पश्चात बहुत ड़रती ड़रती निगाहो से उस स्थान पर नज़र करता है जहां मूल्य छपा होता है । वह किताब मंे छपा एक एक शब्द को आत्मसात कर लेना चाहता है लेकिन बस यह एक शब्द उसकी उम्मीदो पर पानी फेर देता है । इतनी कीमत अदा कर पाना उसके बस में नही है क्योकि अगर एक दो किताब ले लेने से उसकी भूख शांत हो जाती तो वह हिम्मत कर लेता लेकिन जो इल्म के बीमार है उनका इलाज दवा की दो खुराक से नही हो जाता । किताब का मूल्य देख कर वह उस किताब को जितने अदब और एहतराम से हाथ में लिया था उतनी ही बेरुखी से वही रख देता है जहां से निकाला था । फिर एक अपराध बोध लिये नज़रे झुकाये दुकान से एक सांध्य दैनिक लेते हुए बाहर निकल जाता है । दुकानदार बताता है राजकमल से या नेशनल से नई किताबे आई है देखे के नही ? अब वह बेचारा क्या बताये कि तुम्हारी दुकान में कौन सी किताब कहां , कब से रखी है उसे सब कुछ मालूम है । वह स्वयं को संभालता है और सामान्य लहजे में कहता है ये सब तो ले जा चुका हूॅ कोई और नई किताब आयेगी तो खबर करना ।

किताबो की इस बढ़ती कीमतो का परिणाम कितना भयंकर होगा ? धीरे धीरे पुस्तक और पाठको के बीच दुरियाॅ बढ़ती जायेगी और फिर फासला इतना ज्यादा हो जायेगा कि एक दिन अच्छा साहित्य पढ़ने की परम्परा ही लुप्त हो जायेगी । बच्चे को पोलियो का टीका लगाया ,च्यवनप्राश खिलाया ,बोर्नविटा पिलाया लेकिन पंच परमेश्वर , हार की जीत ,उसने कहा था ,नमक का दरोगा , बड़े भाई साहब ,टोबा टेक सिंह ,तेनालीराम के किस्से ,सिंहासन बत्तीसी ,मुल्ला नसीरूद्धीन ,नही पढ़या तो क्या खाक परवरिश की ? याद रखिये पोलियो की तरह ये साहित्य की खुराक भी ज़रूरी है । साहित्य दिमाग की कसरत है । साहित्य वह अखाड़ा है जहां सोच को तंदरुस्त किया जाता है । साहित्य की दो बूंद से सोच में संस्कार घुल जाते है जो जीवन को जीने लायक बना देते है । लेकिन दिनो दिन किताबो की बढ़ती कीमत हताश करते जा रही है । मध्यम वर्ग का बजट उसे इतनी इजाज़त नही देता कि इस माह फैज़ की शायरी ले आये तो अगले महीने अज्ञेय की कविताये ले आयेगे । किसी महीने बर्नाड़ शाह को पढेगे तो किसी महीने विवेकानंद को । शेक्सपियर और कालीदास को अगर नही पढ़ा तो क्या खाक पढ़ा ? बेचारा पाठक एैसा भी नही कर सकता कि इस महीने आटा नही लेते और परसाई का व्यंग्य संग्रह ले लेते है , बच्चे की स्कूल की फीस अगले महीने पटा देगे इस महीने मुक्तिबोध का काव्य संग्रह ले लेते है । अगर वह एैसा करने का प्रयास करेगा भी तो रैक में रखे परसाई जी खुद उसकी खबर ले लेगे और मुक्तिबोध जी की तरफ उसने हाथ बढ़ाया तो वे अपनी बीड़ी से चटका ही लगा देगे ।

किताबो की बढ़ती कीमत के संबंध में सबसे आश्यर्च की बात यह है कि इसे लेकर आज तक समाज के किसी वर्ग ने अपना विरोध प्रगट नही किया । आटा ,दाल, शक्कर की कीमत नियंत्रण मंे न होने पर सरकार को आड़े हाथो लिया जाता है ,विरोध व्यक्त किया जाता है , कैरोसिन , कुकिंग गैस और पेट्र्ोल की कीमतो को लेकर आंदोलन किये जाते है ,इसी बात पर सरकार का रहना या नही रहना तय किया जाता है लेकिन किताबो की बढ़ती कीमत पर किसी का विरोधी स्वर सुनाई नही देता । कोई भी राजनैकित पार्टी अपने घोषणा पत्र में इसे शामिल नही करती कि यदि उसकी सरकार बनी तो वह किताबो की कीमत कम करने की दिशा मे आवश्यक कदम उठायेगी । आज तक कभी यह सुनने में नही आया कि पुस्तको के अनाप शनाप बढ़े हुए मूल्य के विरोध में किसी शहर के बुद्धिजीवियो ने जुलूस निकाला या भूख हड़ताल की अथवा नगर बंद का आव्हान किया हो । कभी सुनने में नही आया कि किसी बुक स्टाॅल के सामने किताबो की बढती कीमतो के विरोध में कोई आमरण अनशन पर बैठा हो ,या पुस्तक प्रेमियो ने नारे बाज़ी की हो । कभी कही किसी शहर में पाठको ने एक़ित्रत होकर मुख्य मंत्री या राज्यपाल को इस संबंध में ज्ञापन नही दिया है । अगर कोई पढ़ने वाला इस तरह की नाराज़गी का इज़हार करे भी तो उसे पुस्तकालय का रास्ता दिखा दिया जाता है कि भाई इतनी बड़ी लाईब्रेरी तो है तेरे वास्ते वहां सस्ते में क्या लगभग मुफ्त में पढ़ना, , यहां खाली पीली हल्ला क्यो करता है । लाईब्रेरी यानि नही मामा से काना मामा भला । हम जिस साहित्य की चर्चा कर रहे है उसे एक घंटा लाईब्रेरी में बैठ कर नही पढ़ा जा सकता या एक दो दिन के लिये घर ले आना भी काफी नही है । दरअसल साहित्य कोई मसाला दोसा नही है कि गपागप खा लिये ये तो रूह अफज़ा है इसे चुस्की चुस्की पीना होता है , तभी आत्मा तर होती है । फैज़ से लेकर कैफ तक आौर ग़ालिब से लेकर साहिर तक एैसा कोई नही है जिसे एक बार पढ़ लिया और पेट भर गया ,समझ पुख्ता हो गई । ज़िन्दगी गुज़र गई है लोगो की गालिब और कबीर को पढ़ते पढ़ते आज तक पूरा नही कर पाये है । नही जनाब इन्हे तो किताब पूरी चाहिये यानि हमेशा के लिये । फिर तो खरीदना ही होगा , लेकिन किताबो की बढ़ती कीमत के आगे पढ़ने के शौकीन बेबस हो गये है । अब किताबे घर में आना बंद हो गई है । पहले बड़ो के लिये आती थी तो बच्चो से भी रिश्ता जुड़ जाता था ,यही से बच्चो के पढ़ने की शुरूआत होती थी । तब बच्चो के लिये अलग से चंदामामा और चाचा चैधरी मंगवाई जाती थी । पढ़ने की शुरूआत इन्ही पत्रिकाओ से होती है , एकाएक कोई अपने पढ़ने की शुरूआत ब्रेख्त या बर्नाड़ शाॅ से नही करता है , ये तो उसके आगामी पड़ाव होते है । साहित्य पहले कीमती था अब महंगा हो गया है ।

यह जीवन का कितना ड़रावना पक्ष है कि अब घर में किताबे नही आती । किताबे जिनके संबंध में कहा जाता है कि इससे अच्छा कोई दोस्त नही है ं। साहित्य की समझ रखने वाले कहते है कि अगर वहां ढ़ेर सारी किताबे नही होगी तो हम स्वर्ग में जाने से इंकार कर देगे । अकबर ईलाहबादी ,नज़ीर अकबराबादी ,कृष्ण बिहारी नूर ,कुर्रतुल एन हैदर ,कृष्ण चंदर ,सआदत हसन मंटो, , इसमत चुगताई , शहरयार ,नईम ,शाकिरा परवीन ,तसलीमा नसरीन , पाश ,अज्ञेय ,बच्चन ,निराला ,़़़ ़इनको पढ़ कर तो देखिये आप कह उठेगे साहित्य जीवन का श्रंगार है । यह आंख की काजल है , होठो की लिपिस्टिक है , ये कैलशियम है , ग्लूकोज़ है , आयरन है । साहित्य मस्तिष्क को रौशन करने वाला हैलोजन है । साथियो आज इस हैलोजन को बाजार नामक हुड़दंगी युवक ने मूल्य के पत्थर से फोड़ दिया है । पुस्तक और पाठक के बीच मूल्य की गहरी खाई आ गई है । पाठक तो किताब पढ़ नही पा रहा है लेकिन उसकी बेबसी को किताबे ज़रूर पढ़ रही होगी । अब अनियंत्रित होती हुई महंगाई पेट पर ही नही विचारो पर भी मार करने लगी है । रोटी कपड़ा और मकान मुहय्या हो गया न अब तुम्हारी एक एक चीज़ का ठेका सरकार ने थोड़ी ले रखा है ं। ये तुम्हारा अपना शौक है इसका इंतेज़ाम तुम खुद करो । नही नही एैसा बोलने से बात नही बनेगी । अगर किसान को खाद ,उघोगपति को लोन ,वैज्ञानिको को स्कालरशिप ,खिलाड़ियो को मैदान उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है तो पढ़ने वाले लोगो को उच्च स्तरीय साहित्य मुहय्या कराना सरकार की जिम्मेदारी क्यो नही है ? हालाॅकि सरकार ने अपने किसी बयान में इस जिम्मेदारी से स्वयं को अलग करने की बात नही की है लेकिन पुस्तकालय इसका सही समाधान नही है । सरकार को कुछ एैसे इंतेज़ाम करने चाहिये कि सीधा किताबो के दाम कम हो जाये । जिस तरह पेट्र्ोल और कुकिंग गैस का अतिरिक्त बोझ सरकार आम आदमी पर पड़ने नही देती है उसी तरह का कोई फार्मूला यहा भी बैठा देना चाहिये । रहन सहन का स्तर मंहगे कपड़े , खुबसूरत फर्नीचर और चमकदार गाड़ियो से ही उंचा नही होता । उसमे विचारधारा , तहज़ीब ,तमीज़ की भी आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति साहित्य से होती है । साहित्य जीने का सलीका सिखाता है ,बोलने का तरीका सिखाता है । वह समाज आर्कषक हो ही नही सकता जिसमें साहित्य के लिये जगह न हो । इंसानी ज़िंदगी दो मंज़िला मकान है ,पहली मंज़िल पर रोटी कपड़ा और मकान है और दूसरी मंज़िल पर साहित्य ।

साथियो अच्छे से अच्छा पढ़ने का मौहाल फिर से बनाना होगा । पढ़ने से जीवन में वैसा ही कुछ होता है जो मकान में पुताई कराने से होता है । किताबे हमारी सोच की व्हाईट वाशिंग करती है । कुछ लोगो ने अपने घर का एक कमरा सिर्फ किताबो के लिये रख छोड़ा है , उनकी अपनी पर्सनल लाईब्रेरी है , जहां उनके प्रिय लेखको की अनेको किताबे मौजूब है ,उनके सामने पढ़ने का कोई संकट नही है लेकिन हर आदमी इतना हैसियतदार नही होता और चंद हैसियतदारो के ही पढ़ लेने से पढ़ा जाना पूर्ण नही हो जाता । पढ़ने की लुप्त होती परम्परा को बचाना होगा । इसमंे प्रकाशक का कोई दोष नही , महंगाई का हमला तो चैतरफा है और मंहगाई से निजात दिलाना सरकार की जिम्मेदारी है , हमें तो बस सरकार तक यह बात पहुचानी है कि दाल ,चावल,शक्कर , तेल , पेट्र्ोल ,कुकिंग गैस की कीमत पर नियंत्रण रखना ही महंगाई पर नियंत्रण रखना नही होता बल्कि और भी चीज़े इसमें शामिल की जानी चाहिये जैसे किताब । गालिब ,ईकबाल ,जिगर ,दुष्यंत ,शमशेर ,त्रिलोचन ,महादेवी ,परसाई ,शरदजोशी ,कमलेश ,मोहन राकेश ,मुर्शरफ आलम ज़ौकी ,कार्ल माक्र्स ,राहुल सांस्कृतांयन ,विवेकानंद ,एैसे अनेको लोगो की अनंेको कृतियो जो हमारी कीमती पूंजी है उसे पढ़ा नही तो फिर मानव जीवन प्राप्त करने का क्या लाभ ? जो पढ़ा जाना आवश्यक है उसे पढ़े जाने से रोकने के सारे रास्ते बंद कर देने होगे । शासन प्रशासन को इस समस्या का समाधान ढूंढ़ना होगा । वैसे भी पढ़ने वालो की संख्या कोई बहुत ज़्यादा नही है लेकिन जो थोड़े बहुत है वे भी पढ़ना छोड़ देगे तो उम्मीद की आखरी किरण भी बुझ जायेगी । हमारा एक ही मकसद नही होना चाहिये कि जो पढ़ने वाले है उनका पढ़ते जाना बरकरार रहे बल्कि हमारी कोशिश होनी चाहिये कि नये पढ़ने वाले पैदा हो क्योकि बुलंदी पर पहुचने की जो बहुत सारी सीढ़ियाॅ है उसमें एक सीढ़ी साहित्य भी है । यह भी कितनी दयनीय स्थति है कि पढ़ने वालो पर आये संकट से निपटने के लिये सहयोग की अपील हम नही पढ़ने वाले वर्ग से कर रहे है , जिनके संबंध मंे यह भी कहा जा सकता है कि बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद ? जिनके हाथ में अधिकार है वे लोग इस दिशा में जब कदम उठायेगे तब उठायेगे फिलहाल तो हम चिंता करने वालो को विभिन्न अवसरो पर किताब भेंट करने की परम्परा शुरू कर देनी चाहिये । हमारे साहित्यिक खज़ाने में से कोई एक किताब भी नही पढ़ने वाले ने पढ़ ली तो बाकी सारी चीज़े वह ढूंढ़ ढ़ंूढ़ कर पढ़ लेगा । पढ़ने वाली नस्ल तैयार करना निहायत ज़रूरी है क्योकि जहालत का बम बारूदी बम से ज्यादा खतरनाक होता है इसलिये किताबो की कीमत से उपजा पढ़ने का संकट खत्म करना ही होगा । इसके लिये हम सब को सामूहिक रूप से संबंधित व्यक्तियों से अपील करनी चाहिये कि ”कृपया किताबो की कीमत कम कीजिये हुजूर“।
अख्तर अली
फ़ज़ली अपार्टमेन्ट, आमानाका कुकुरबेड़ा,रायपुर (छ॰ग॰)
मो॰ 9826126781 / akhterspritwala@yahoo.co.in

4 टिप्‍पणियां:

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

इन दिनो साहित्यिक पुस्तको की कीमत इतनी अधिक हो गई है कि अब पुस्तक खरीद कर पढ़ना आम आदमी के बजट में रहा ही नही ।....Bahut sahi mudda apne uthaya...badhai.

KK Yadav ने कहा…

युवा पर अख्तर का यह दूसरा आलेख पढ़ रहा हूँ....वाकई विचारों में धार है. यदि वे नियमित लिखें तो अच्छा होगा.

mark rai ने कहा…

shaandar post ...mai bhi aapke hi fild se juda hua ..kitaabo me sar khpata ek aadmi hoon jo upsc ka interview bhi diya...kuchh din pahle hi blogigng ka chshka laga..aapko dekhkar khushi hui...

बेनामी ने कहा…

बेहद सार्थक और समसामयिक मुद्दा उठाया आपने.