फ़ॉलोअर

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

हिन्दी के भगीरथ : महामना मदन मोहन मालवीय

इतिहास जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने का श्रेय किसी को देगा तो पहला नाम महामना पं. मदन मोहन मालवीय का होगा। १९वीं शताब्दी तक उत्तर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिन्दी का कोई स्थान नहीं था। परन्तु २० वीं सदी के मध्यकाल तक वह भारत की राष्ट्रभाषा बन गई, उसके पीछे महामना मालवीयजी के ही प्रयास थे जो उस आन्दोलन के आधार बने। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की सदस्यता मालवीयजी ने सभा की स्थापना के प्रथम वर्ष से ही ले ली थी। उसी समय से उन्होंने प्रयाग में वकालत आरम्भ की परन्तु सभा के कार्य कलापों से उन्होंने कभी भी अपने को अलग नहीं रखा। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दी भाषा के प्रचार- प्रसार तथा उसे समुचित स्थान दिलाने के लिए किये जाने वाले संघर्ष को जन आन्दोलन का रूप दिया तथा सभा की सम्पदा तथा आर्थिक स्रोतों के विकास के लिये महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। युगपुरुष महामना पं. मदनमोहन मालवीय का जन्म २५ दिसम्बर १८६१ ई. में प्रयाग में हुआ था।

जब बंगाल, उड़ीसा, गुजरात तथा महाराष्ट्र में राजकाज तथा अदालतों की भाषा बन चुकी थी उस समय भी उत्तर प्रदेश की भाषा हिन्दुस्तानी थी और उर्दू को ही हिन्दुस्तानी माना जाता था जो फारसी लिपि में लिखी जाती थी। सन् १८८५ के विधान में यह व्यवस्था थी कि सम्मन आदि अदालती कार्यों में हिन्दी और उर्दू दोनों का प्रयोग हो परन्तु व्यावहारिक रूप में उर्दू का प्रयोग जारी रहा। गवर्नर ने अपने काशी आगमन पर नागरी प्रचारिणी सभा के प्रतिनिधि मण्डल को मिलने का भी समय नहीं दिया और दूसरी ओर रोमन को राष्ट्र की लिपि बनाने का आन्दोलन चला।

इससे पूर्व मालवीयजी बालकृष्ण भट्ट के साथ हिन्दी का कार्य आरम्भ कर चुके थे। भट्ट जी हिन्दी के लिए समर्पित थे और उनके मन में हिन्दी को एक प्रतिष्ठित रूप में देखने की व्यग्रता थी। उस समय प्रयाग में केवल एक ही पुस्तकालय थार्नहिल मैमोरियल लाइब्रेरी के नाम से था जिसमें योरोपियन भाषाओं की पुस्तकों का बाहुल्य था तथा जनरुचि की पुस्तकों का अभाव था। मालवीयजी के प्रयास से उनके निवास स्थान के पास ही भारती भवन पुस्तकालय की स्थापना हुई। पुस्तकालय के नियम के अनुसार यहाँ केवल हिन्दी तथा संस्कृत की ही पुस्तकें खरीदी जा सकती थीं तथा योरोपियन भाषाओं की पुस्तकें केवल दान में प्राप्त की जा सकती थीं। मालवीयजी भारती भवन के ट्रस्टी चुने गये तथा वे जीवनपर्यन्त उसके अध्यक्ष रहे।

काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना सन् १८९३ ई. में हुई थी। इससे लगभग १ दशक पहले सन् १८८४ में प्रयाग में मालवीयजी के प्रयास से हिन्दी हितकारिणी सभा की स्थापना की गई थी। सर्वश्री माघव प्रसाद शुक्ल, रासबिहारी शुक्ल तथा पुरुषोत्तमदास टण्डन उनके सहयोगी थे। इस संस्था के माध्यम से भारतेन्दु की मान्यता `निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कै मूल' को बल मिला और भारतेन्दु ने जो हिन्दी का सपना देखा था वह मालवीयजी तथा उनके सहयोगियों के हाथों स्वरूप लेने लगा।

सन् १८९४ में मेरठ के दुर्गादत्त ने न्यायालयों में देवनागरी लिपि के प्रयोग के लिए ज्ञापन दिया जो अस्वीकृत हो गया। इस सन्दर्भ में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने लैफ्टीनेन्ट गवर्नर को काशी आमंत्रित किया जिसका सकारात्मक उत्तर मिला। मालवीयजी के ऐतिहासिक प्रयास यहीं से आरम्भ होते हैं।

मालवीयजी ने लैफ्टीनेन्ट गवर्नर से भेंट की तथा हिन्दी न्यायालयों की भाषा बने इसका पक्ष दृढ़ता से प्रस्तुत किया। वे वकालत का काम छोड़ कर इसी कार्य में जुट गए। उच्च न्यायालय के एक कक्ष में लोग उन्हें कानून की पुस्तकों से नहीं वरन् सन्दर्भ पुस्तकों तथा अन्य साहित्यिक पुस्तकों से घिरा हुआ देखते थे। अनेक स्थानों का दौरा करके उन्होंने आंकड़े एकत्र किये तथा एक सौ पृष्ठों का ऐतिहासिक ज्ञापन शासन को देने के लिए तैयार किया। सन् १८९७ में यह दस्तावेज इंडियन प्रेस से प्रकाशित हुआ।

इस कार्य को और गति देने के लिए नागरी प्रचारिणी सभा ने १७ व्यक्तियों की एक समिति का गठन किया। समिति के एक मात्र प्रतिनिधि मालवीयजी थे। प्रतिवेदन में ६० हजार व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे जिनका मत था कि देवनागरी लिपि को ही न्यायालयों की भाषा होने का अधिकार है। यह हिन्दी के लिए पहली सुनियोजित एवं व्यूह बद्ध लड़ाई थी जिसने जनमानस में हिन्दी के प्रति अपराजेय लालसा को जन्म दिया। मालवीयजी के परामर्श से बाबू श्यामसुन्दर दास ने कार्यक्रम को आन्दोलन के रूप में चलाने के लिए नगरों में समितियाँ गठित कीं। जनता के साथ बुद्धिजीवी तथा पत्र पत्रिकाएँ भी इस अभियान से जुड़ गईं।
२० अगस्त सन् १८९६ में राजस्व परिषद ने एक प्रस्ताव पास किया कि सम्मन आदि की भाषा एवं लिपि हिन्दी होगी परन्तु यह व्यवस्था कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी। १५ अगस्त सन् १९०० को शासन ने निर्णय लिया कि उर्दू के अतिरिक्त नागरी लिपि को भी अतिरिक्त भाषा के रूप में व्यवहृत किया जाये। यह मालवीयजी के नेतृत्व में चल रहे प्रयासों की विजय थी परन्तु उर्दू भाषी तथा योरोपियन समुदाय पर इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। लैफ्टीनेन्ट गवर्नर ने मालवीयजी को बात करने के लिए आमंत्रित किया। मालवीयजी उस समय तेज बुखार में थे परन्तु दवाओं का ढेर लेकर वे गवर्नर के पास पहुँचे उसी स्थिति में उन्होंने गवर्नर से दो घण्टे बात की और उन्हें आश्वस्त किया कि वे आन्दोलन की चिन्ता न करें तथा किसी स्थिति में आदेश वापस न लें। यह कार्य मालवीयजी ही कर सकते थे।

हिन्दी प्रदेश की भाषा बन गई थी परन्तु मालवीयजी उसे राष्ट्र की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए चिन्तित थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रारूप प्रस्तुत किया तथा सन् १९१० में काशी में आयोजित प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की। सम्मेलन में देश भर से ३०० प्रतिनिधि तथा विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों के ४२ सम्पादक सम्मिलित हुए। इस अवसर पर अदालतों में नागरी लिपि का प्रचार, उच्च कक्षाओं में हिन्दी का शिक्षण, हिन्दी पाठ्यपुस्तकों का प्रणयन, राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी और नागरी का प्रयोग तथा स्टाम्पों पर हिन्दी का प्रयोग आदि प्रस्ताव पारित किए गये।

सम्मेलन में मालवीयजी ने अत्यन्त मार्मिक अध्यक्षीय भाषण दिया। एक कोष की स्थापना की गयी जिसमें तुरन्त ३५२४ रुपये संग्रहीत हो गये। स्वयं मालवीयजी ने अपने अंशदान के रूप में ११ हजार रुपये देने की घोषणा की। सभा पर ६ हजार रुपये का ऋण था उसे अदा करने का आश्वासन मिला। पं. श्यामबिहारी मिश्र ने मालवीयजी के संबन्ध में कहा था ``हिन्दी की जो उन्नति आज दिखाई देती है उसमें मालवीयजी का उद्योग मुख्य कहना चाहिए। इस अवसर पर हमें दूसरा सभापति इनसे बढ़कर नहीं मिल सकता था।

अपने अध्यक्षीय भाषण में मालवीयजी ने हिन्दी अपनाने, सरल हिन्दी का प्रयोग करने तथा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द ग्रहण करने की अपील की। उनका कहना था कि संस्कृत की पुत्री होने के कारण हिन्दी प्राचीनतम भाषा है।

सन् १९१९ से बम्बई में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए मालवीयजी ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएँ आपस में बहने हैं तथा हिन्दी उनमें बड़ी बहन है। अन्य प्रादेशिक भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी बोलने वालों की संख्या अधिक है। ३२ करोड़ भारत वासियों में ही साढ़े तेरह करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। अत: देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा का स्थान दिया जाना चाहिए। उन्होंने हिन्दी को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाने पर भी बल दिया। उन्होंने आशा व्यक्त की कि कोई दिन आएगा जब अंग्रेजी की तरह हिन्दी भी विश्व भाषा बनेगी। सन् १९३९ में काशी में पुन: आयोजित १८ वें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वे स्वागताध्यक्ष थे। इसी हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने बाद में मालवीयजी के आदर्शों के उत्तराधिकारी पुरुषोत्तमदास टण्डन के नेतृत्व में भारतीय संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में अभिहित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी को एक विषय के रूप में उन्होंने स्थान दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही था जहाँ सबसे पहले हिन्दी में स्नातकोत्तर कक्षाओं में शिक्षा प्रारम्भ हुई। हिन्दी साहित्य में प्रथम शोध भी यहीं प्रस्तुत हुआ था। विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल में मालवीयजी के मन में एक ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करने की परिकल्पना थी जहाँ मातृभाषा में सभी विद्याओं के शिक्षण की व्यवस्था हो। विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में उन्होंने बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अयोध्या सिंह उपाध्याय ``हरिऔध तथा लाला भगवानदीन जैसे विद्वानों की नियुक्ति की। उनकी इच्छा थी कि विश्वविद्यालय में हिन्दी माध्यम से शिक्षा दी जाये परन्तु शिक्षा सचिव बटलर के विरोध के कारण तब ऐसा संभव नहीं हो सका। फिर भी विश्वविद्यालय की रजत जयन्ती के अवसर पर महात्मागांधी की उपस्थिति में मालवीयजी ने विश्वास दिलाया था कि जैसे - जैसे हिन्दी में पुस्तकों की रचना होती जायेगी हिन्दी माध्यम को विस्तार दिया जाता रहेगा। दुर्भाग्य से अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले वे इस लोक से चले गए अन्यथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हिन्दी माध्यम का विश्वविद्यालय होता। यह दायित्व वह दूसरी पीढ़ी पर छोड़ गये हैं। काश! मालवीयजी की इस महान् संस्था के वेतनभोगी उनकी भावना को महसूस कर सकते।

नागरी प्रचारिणी सभा से वे अन्त तक जुड़ कर हिन्दी के लिए कार्य करते रहे। हिन्दी शब्द सागर की पूर्ति पर उन्होंने सभा के नये भवन का शिलान्यास किया था। प्रस्तर मंजूषा में ताम्र पर मालवीयजी के संबन्ध मे लिखा गया -
इस स्थल पर नागरी प्रचारिणी सभा काशी के नवीन भवन का शिलान्यास संस्कार माघ शुक्ल ५ सं. १९८५ विक्रमी को महामना पं मदन मोहन मालवीय के कर कमलों से संपन्न हुआ।

हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में भी मालवीयजी का अवदान अविस्मरणीय रहेगा। उन्होंने कालाकांकर जैसे ग्रामीण अंचल में रहकर हिन्दी के प्रथम दैनिक हिन्दोस्थान का सम्पादन किया तथा अपने सम्पादन से देश में एक नयी वैचारिक क्रान्ति को जन्म दिया। उन्होंने ``अभ्युदय जैसे कई पत्रों का भी सम्पादन किया जिसमें पहली बार राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की रचना प्रकाशित हुयी थी। यदि मालवीयजी न होते तो मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवि प्रेरणा विहीन रहते और उनकी साधना भी शायद इतनी प्रखर न होती।

मालवीयजी स्वयं भी रचनाकार थे। बाल्यकाल से ही वे `मकरन्द' नाम से लिखते थे तथा उनकी रचनाओं का प्रकाशन बाल कृष्ण भट्ट के हिन्दी प्रदीप में होता था। बी.ए. पास करने के बाद ही उन्होंने इलाहाबाद में साहित्य समाज की स्थापना की थी जहाँ साहित्य चर्चा तथा हिन्दी प्रचार का कार्य होता था।

इस प्रकार महामना मालवीय ने बाल्यकाल से जीवन के अन्तिम क्षण तक हिन्दी के लिये अथक कार्य किया। उनके अनवरत प्रयास और संघर्ष केवल भगीरथ की तपस्या के पर्याय हो सकते हैं जिसके फलस्वरूप हम एक गंगा के दर्शन कर सके जिसका नाम राष्ट्र भाषा हिन्दी है।

-जगत प्रकाश चतुर्वेदी

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

मगर ये जनता चुप है















भ्रष्ट हो गयी दिल्ली की सरकार
मगर ये जनता चुप है।
मजदूरों पर मँहगाई की मार
मगर ये जनता चुप है।

फटी हुई आँखों में कैसे
आयेगें रोटी के सपने,
सत्ता की सीढ़ी पर चढ़कर
भूल गये जनप्रतिनिधि अपने,
राजनीति अब केवल कारोबार
मगर ये जनता चुप है।

भ्रष्टाचार, घोटाले, रिश्वतखोरी,
और वसूली है,
ए0सी0 घर मैं बैठी संसद
जनता का दुःख भूली है,
गँाधी जी के सपने सब बेकार
मगर ये जनता चुप है।

खाद-बीज, पानी की किल्लत
खेतों में पसरा अकाल है,
पंचायत सरपंचों की है।
बिना दवा के अस्पताल है,
नुक्कड़-नुक्कड़ खुलते बीयरबार
मगर ये जनता चुप है।

अंग्रेजों ने जैसे बाँटा
वैसे ही बँटवारा करते,
संविधान की कसमें खाकर
हमको तिल-तिल मारा करते,
बाँट रहे हैं ये मेले-त्योहार
मगर ये जनता चुप है।

सत्ता तो सत्ता, विपक्ष भी
अपनी आँखे खोल रहा क्या?
कलम चलाने वाला कवि भी
दिनकर जैसा बोल रहा क्या?
बता रहे हैं सब कुछ ये अखबार
मगर ये जनता चुप है।

गाँवों का यह देश
मगर गाँवों में निर्धन,
स्विस बैंकों में भरा
दलालों का काला धन
लूट रहे हैं हमको बिग बाजार
मगर ये जनता चुप है।

-जयकृष्ण राय तुषार,63 जी/7, बेली कालोनी,
स्टेनली रोड, इलाहाबाद, मो0- 9415898913

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

बाल साहित्य की आशा : आकांक्षा यादव

बच्चों के समग्र विकास में बाल साहित्य की सदैव से प्रमुख भूमिका रही है। बाल साहित्य बच्चों से सीधा संवाद स्थापित करने की विधा है। बाल साहित्य बच्चों की एक भरी-पूरी, जीती-जागती दुनिया की समर्थ प्रस्तुति और बालमन की सूक्ष्म संवेदना की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि बाल साहित्य में वैज्ञानिक दृष्टिकोण व विषय की गम्भीरता के साथ-साथ रोचकता व मनोरंजकता का भी ध्यान रखना होता है। समकालीन बाल साहित्य केवल बच्चों पर ही केन्द्रित नहीं है अपितु उनकी सोच में आये परिवर्तन को भी बखूबी रेखाकित करता है। सोहन लाल द्विवेदी जी ने अपनी कविता ‘बड़ों का संग’ में बाल प्रवृत्ति पर लिखा है कि-''खेलोगे तुम अगर फूल से तो सुगंध फैलाओगे।/खेलोगे तुम अगर धूल से तो गन्दे हो जाओगे/कौवे से यदि साथ करोगे, तो बोलोगे कडुए बोल/कोयल से यदि साथ करोगे, तो दोगे तुम मिश्री घोल/जैसा भी रंग रंगना चाहो, घोलो वैसा ही ले रंग/अगर बडे़ तुम बनना चाहो, तो फिर रहो बड़ों के संग।''

आकांक्षा जी बाल साहित्य में भी उतनी ही सक्रिय हैं, जितनी अन्य विधाओं में। बाल साहित्य बच्चों को उनके परिवेश, सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, संस्कारों, जीवन मूल्य, आचार-विचार और व्यवहार के प्रति सतत् चेतन बनाने में अपनी भूमिका निभाता आया है। बाल साहित्यकार के रूप में आकांक्षा जी की दृष्टि कितनी व्यापक है, इसका अंदाजा उनकी कविताओं में देखने को मिलता है। इसी के मद्देनजर कानपुर से डा0 राष्ट्रबन्धु द्वारा सम्पादित-प्रकाशित ’बाल साहित्य समीक्षा’ ने नवम्बर 2009 अंक आकांक्षा यादव जी पर विशेषांक रूप में केन्द्रित किया है। 30 पृष्ठों की बाल साहित्य को समर्पित इस मासिक पत्रिका के आवरण पृष्ठ पर बाल साहित्य की आशा को दृष्टांकित करता आकांक्षा यादव जी का सुन्दर चित्र सुशोभित है। इस विशेषांक में आकांक्षा जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर कुल 9 रचनाएं संकलित हैं।

’’सांस्कृतिक टाइम्स’’ की विद्वान सम्पादिका निशा वर्मा ने ’’संवेदना के धरातल पर विस्तृत होती रचनाधर्मिता’’ के तहत आकांक्षा जी के जीवन और उनकी रचनाधर्मिता पर विस्तृत प्रकाश डाला है तो उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुडे दुर्गाचरण मिश्र ने आकांक्षा जी के जीवन को काव्य पंक्तियों में बखूबी गूंथा है। प्रसि़द्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु जी ने आकांक्षा जी के बाल रचना संसार को शब्दों में भरा है तो बाल-मन को विस्तार देती आकांक्षा यादव की कविताओं पर चर्चित समालोचक गोवर्धन यादव जी ने भी कलम चलाई है। डा0 कामना सिंह, आकांक्षा यादव की बाल कविताओं में जीवन-निर्माण का संदेश देखती हैं तो कविवर जवाहर लाल ’जलज’ उनकी कविताओं में प्रेरक तत्वों को परिलक्षित करते हैं।

वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा0 शकुन्तला कालरा, आकांक्षा जी की रचनाओं में बच्चों और उनके आस-पास की भाव सम्पदा को चित्रित करती हैं, वहीं चर्चित साहित्यकार प्रो0 उषा यादव भी आकांक्षा यादव के उज्ज्वल साहित्यिक भविष्य के लिए अशेष शुभकामनाएं देती हैं। राष्ट्भाषा प्रचार समिति-उ0प्र0 के संयोजक डा0 बद्री नारायण तिवारी, आकांक्षा यादव के बाल साहित्य पर चर्चा के साथ दूर-दर्शनी संस्कृति से परे बाल साहित्य को समृद्ध करने पर जोर देते हैं, जो कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बेहद प्रासंगिक भी है। साहित्य साधना में सक्रिय सर्जिका आकांक्षा यादव के बहुआयामी व्यक्तित्व को युवा लेखिका डा0 सुनीता यदुवंशी बखूबी रेखांकित करती हैं। बचपन और बचपन की मनोदशा पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत आकांक्षा जी का आलेख ’’खो रहा है बचपन’’ बेहद प्रभावी व समयानुकूल है।

आकांक्षा जी बाल साहित्य में नवोदित रचनाकार हैं, पर उनका सशक्त लेखन भविष्य के प्रति आश्वस्त करता हैं। तभी तो अपने संपादकीय में डा0 राष्ट्रबन्धु लिखते हैं-’’बाल साहित्य की आशा के रूप में आकांक्षा यादव का स्वागत कीजिए, उन जैसी प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का रास्ता दीजिए। फूलों की यही नियति है।’’ निश्चिततः ’बाल साहित्य समीक्षा’ द्वारा आकांक्षा यादव पर जारी यह विशेषांक बेहतरीन रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक साथ स्थापित व नवोदित रचनाकारों को प्रोत्साहन देना डा0 राष्ट्रबन्धु जी का विलक्षण गुण हैं और इसके लिए डा0 राष्ट्रबन्धु जी साधुवाद के पात्र हैं।

समीक्ष्य पत्रिका-बाल साहित्य समीक्षा (मा0) सम्पादक-डा0 राष्ट्रबन्धु,, मूल्य 15 रू0, पता-109/309, रामकृष्ण नगर, कानपुर-208012
समीक्षक- जवाहर लाल ‘जलज‘, ‘जलज निकुंज‘ शंकर नगर, बांदा (उ0प्र0)

रविवार, 6 दिसंबर 2009

जाति व्यवस्था : डा0 अम्बेडकर बनाम गाँधी

डाॅ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक एवं आर्थिक समानता जरूरी है। महात्मा गाँधी और डाॅ0 अम्बेडकर दोनों ने ही जाति व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की बात कही पर जहाँ डाॅ0 अम्बेडकर का मानना था कि सम्पूर्ण जाति व्यवस्था को समाप्त करके ही बुराइयों को दूर किया जा सकता है वहीं महात्मा गाँधी के मत में शरीर में एक घाव मात्र हो जाने से पूरे शरीर को नष्ट कर देना उचित नहीं अर्थात पूरी जाति व्यवस्था को खत्म करने की बजाय उसकी बुराईयों मात्र को खत्म करना उचित होता। डाॅ0 अम्बेडकर के मत में मनुस्मृति से पूर्व भी जाति प्रथा थी। मनुस्मृति ने तो मात्र इसे संहिताबद्ध किया और दलितों पर राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक दासता लाद दी।
डाॅ0 अम्बेडकर चातुर्वर्ण व्यवस्था को संकीर्ण सिद्धान्त मानते थे जो कि विकृत रूप में सतहबद्ध गैरबराबरी का रूप है। उन्होंने शूद्रों को आर्यों का ही अंग मानते हुए प्रतिपादित किया कि इण्डो-आर्यन समाज में ब्राह्मणों ने दण्डात्मक विधान द्वारा कुछ लोगों को शूद्र घोषित कर दिया और उन्हें घृणित सामाजिक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया। नतीजन, शूद्र चातुर्वर्ण की अन्तिम जाति न रहकर नीची जातियाँ घोषित हो र्गइं। इसीलिए वे हिन्दू समाज के उत्थान हेतु दो तत्व आवश्यक मानते थे- प्रथम, समानता और द्वितीय, जातीयता का विनाश। इसी के अनुरूप उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सुझाव दिया कि अछूतों को गैर जातीय हिन्दू अथवा प्रोटेस्टेण्ट हिन्दू के रूप में मान्यता दी जाय। उनका कहना था कि - ‘‘अछूत हिन्दुओं के तत्व नहीं हैं बल्कि भारत की राष्ट्रीय व्यवस्था में एक पृथक तत्व हैं जैसे मुसलमान।’’
डाॅ0 अम्बेडकर गाँधी जी के ‘हरिजन’ शब्द से नफरत करते थे क्योंकि दलितों की स्थिति सुधारे बिना धर्म की चाशनी में उन्हें ईश्वर के बन्दे कहकर मूल समस्याओं की ओर से ध्यान मोड़ने का गाँधी जी का यह नापाक नुस्खा उन्हें कभी नहीं भाया। उन्होंने गाँधी जी के इस कदम पर सवाल भी उठाया कि- ‘‘सिर्फ अछूत या शूद्र या अवर्ण ही हरिजन हुए, अन्य वर्णों के लोग हरिजन क्यों नहीं हुए? क्या अछूत हरिजन घोषित करने से अछूत नहीं रहेगा? क्या मैला नहीं उठायेगा? क्या झाडू़ नहीं लगाएगा? क्या अन्य वर्ण वाले उसे गले लगा लेंगे? क्या हिन्दू समाज उसे सवर्ण मान लेगा? क्या उसे सामाजिक समता का अधिकार मिल जायेगा? हरिजन तो सभी हैं, लेकिन गाँधी ने हरिजन को भी भंगी बना डाला। क्या किसी सवर्ण ने अछूतों को हरिजन माना? सभी ने भंगी, मेहतर माना। जिस प्रकार कोई राष्ट्र अपनी स्वाधीनता खोकर धन्यवाद नहीं दे सकता, कोई नारी अपना शील भंग होने पर धन्यवाद नहीं देती फिर अछूत कैसे केवल नाम के लिए हरिजन कहलाने पर गाँधी को धन्यवाद कर सकता है। यह सोचना फरेब है कि ओस की बूंदों से किसी की प्यास बुझ सकती है।’’ अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था का सीधा दुष्प्रभाव भले ही दलितों व पिछड़ों मात्र पर दिखता है पर जब इसी सामाजिक विघटन के कारण देश गुलाम हुआ तो सवर्ण भी बिना प्रभावित हुए नहीं रह सके।

शनिवार, 7 नवंबर 2009

युवाओं को आगे आना होगा....


आज जिस तेजी से देश के हालात बदल रहे है,वो चिंता का विषय है!चारों और अनिश्चितता और अराजकता .का वातावरण है!देश .विकास पथ पर अग्रसर है .किंतु लोग पुन:आदिम काल की और जा रहें है!कहीं पर दूसरी जाति में तो कहीं पर अपनी ही जाति में शादी करने पर युवा जोडों को मौत के घाट उतार दिया जाता है !कहीं पर महिला को ..डायन बता कर तो कहीं पर प्रेत बता कर मार दिया जाता है!नेता एक दूसरे की टांग खीचने में लगें है और नित नए नए मुद्दे उठा रहे है !!पूरे देश में एकता और अखंडता की बजाय ..क्षेत्रीय वाद हावी होता जा रहा है !ऐसे में युवाओं की जिम्मेवारी बनती है कि वे आगे आयें और देश को एक नई दिशा दें!!

युवा उर्जावान है ,नई सोच रखते है और सबसे बड़ी बात ज्यादा योग्य है ,बनिस्पत उन पुराने नेताओं के ,तो उन्हें आगे आना ही चाहिए !आज देश को युवा .सोच कि ही आवश्यकता है...!देश को आगे विकसित देश बनने में ये युवा ही एक बड़ी भूमिका निभा सकते है !तो आइये युवाओं आपका स्वागत है.....

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

साहसी पर्वतारोही को सहायता चाहिए...


राजस्थान के महान पर्वतारोही मगन बिस्सा ,जिन्होंने तीन बार एवरेस्ट पर विजय पाई है!१९८४ में पहली बार उन्होंने बछेंद्री पाल के साथ एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया था !इसके लिए उन्हें सेना मैडल भी दिया गया!किंतु आज ये पर्वतारोही अस्पताल में जिंदगी की ज़ंग लड़ रहा है !पिछली मई में चौथी बार एवरेस्ट जीतने की धुन में ये घायल हो गए थे ,तभी से अस्पताल के आई सी यूं में अकेले ही मौत से लड़ रहें है!अभी तक राज्य और केन्द्र सरकार ने इनकी कोई .सुध नहीं ली है!किसी भी नेता को इनसे मिलने समय नहीं है !ऐसी विकट घड़ी में इनके कुछ .मित्रों और शुभचिंतकों ने सहायता का बीडा उठाया है !इन्होने उनकी सहायता हेतु एक वेबसाईट बनाई है जिस पर सारा विवरण उपलब्ध है !इस वेबसाईट पर जाने हेतु यहाँ क्लिक करें...!अपने साहसिक कारनामो से देश का नाम ऊँचा करने वाले पर्वतारोही हेतु हम सभी ब्लोगेर साथियों को भी अपना योगदान देना चाहिए!मगन बिस्सा राजस्थान एडवेंचर फाउन्देशन के अध्यक्ष और नेशनल ..फाउन्देशन .एडवेंचर के निदेशक .भी है....

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

दीवाली में क्यों होती है लक्ष्मी-गणेश की पूजा

दीपावली को दीपों का पर्व कहा जाता है और इस दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि दीपावली मूलतः यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग-बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में शैव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन् ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अतः कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया हैै।

ऐसा नहीं है कि दीपावली का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दुओं से ही रहा है वरन् दीपावली के दिन ही भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के चलते जैन समाज दीपावली को निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है तो सिक्खों के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की स्थापना एवं गुरू हरगोविंद सिंह की रिहाई दीपावली के दिन होने के कारण इसका महत्व सिक्खों के लिए भी बढ़ जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अतः इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यह महत्वपूर्ण है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में जहाँ देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

Gandhiji writes a postcard प्रतियोगिता का आयोजन

गांधी जी को पत्रों से बहुत प्यार था। वे अक्सर अपने साथ पोस्टकार्ड लेकर चलते थे और जहाँ भी रूकते थे, लोगों को पोस्टकार्ड लिखा करते थे। डाक विभाग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की इस खासियत के मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर 'Gandhiji writes a postcard' प्रतियोगिता आयोजित कर रहा है। इसके अन्तर्गत बच्चे प्रतियोगिता पोस्टकार्ड पर एक पत्र लिखेंगे। इस हेतु वह अपने को गांधी जी मानकर पत्र लिखेंगे और यह पत्र किसी ज्वलंत तात्कालिक मुद्दे पर होना चाहिए।

प्रतियोगिता दो श्रेणियों में होगी। प्रथम, कक्षा 3 से कक्षा 5 तक और द्वितीय, कक्षा 6 से कक्षा 8 तक। इस हेतु किसी भी प्रकार का प्रवेश शुल्क नहीं देना होगा। मात्र 10 रूपये का प्रतियोगिता पोस्टकार्ड डाकघर से खरीद कर, उस पर हाथ से निबंध लिखना होगा। निबंध हिन्दी/अंग्रेजी में लिखा जा सकता है। शब्द सीमा न्यूनतम 25 शब्दों की होगी। इसके साथ प्रेषक अपना नाम, उम्र, कक्षा, स्कूल, पता व निबंध लेखन की तिथि, प्रतियोगिता पोस्टकार्ड के पीछे पते वाले भाग के बगल में लिखेगा। निबंध लिखकर पोस्टकार्ड को चीफ पोस्टमास्टर जनरल के चिन्हित पोस्ट बाक्स (उत्तर प्रदेश हेतु-पोस्ट बाक्स सं0-101,लखनऊ जी0पी0ओ0) के पते पर भेजना होगा। इस हेतु अंतिम तिथि 30 अक्टूबर 2009 है। राष्ट्रीय स्तर पर एक जनवरी 2010 को रिजल्ट घोषित कर दिये जायेंगे।

सर्वश्रेष्ठ निबंध को पुरस्कृत भी किया जायेगा। परिमण्डलीय स्तर पर प्रथम श्रेणी (कक्षा 3-5) हेतु क्रमशः आईपाड, डिजिटल कैमरा व सी0डी0 के साथ इन्साइक्लोपीडिया सेट एवं द्वितीय श्रेणी (कक्षा 6-8) हेतु क्रमशः लैपटाप, आईपाड व डिजिटल कैमरा क्रमशः प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कार के रूप में दिये जायेंगे। इसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम श्रेणी (कक्षा 3-5) हेतु लैपटाप व सी0डी0, डिजिटल कैमरा एवं सिन्थसाइजर तथा द्वितीय श्रेणी (कक्षा 6-8) हेतु पर्सनल कम्प्यूटर, प्रिन्टर, यू0पी0एस0 व सी0डी0, हैण्डीकैम तथा म्यूजिक सिस्टम क्रमशः प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कार के रूप में दिये जायेंगे।

सोमवार, 28 सितंबर 2009

विजय का पर्व : दशहरा

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मांँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।

भारत विविधताओं का देश है, अतः उत्सवों और त्यौहारों को मनाने में भी इस विविधता के दर्शन होते हैं। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा काफी लोकप्रिय है। एक हते तक चलने वाले इस पर्व पर आसपास के बने पहाड़ी मंदिरों से भगवान रघुनाथ जी की मूर्तियाँ एक जुलूस के रूप में लाकर कुल्लू के मैदान में रखी जाती हैं और श्रद्धालु नृत्य-संगीत के द्वारा अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। वाड्यार राजाओं के काल में आरंभ इस दशहरे को अभी भी शाही अंदाज में मनाया जाता है और लगातार दस दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण -सिंहासन प्रदर्शित किया जाता है। सुसज्जित तेरह हाथियों का शाही काफिला इस दशहरे की शान है। आंध्र प्रदेश के तिरूपति (बालाजी मंदिर) में शारदीय नवरात्र को ब्रह्मेत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक-पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं। इस दृश्य के मंचन और साथ ही ष्चक्रस्नानष् (भगवान के सुदर्शन चक्र की पुष्करणी में डुबकी) के साथ आंध्र में दशहरा सम्पन्न होता है। केरल में दशहरे की धूम दुर्गा अष्टमी से पूजा वैपू के साथ आरंभ होती है। इसमें कमरे के मध्य में सरस्वती माँ की प्रतिमा सुसज्जित कर आसपास पवित्र पुस्तकें रखी जाती हैं और कमरे को अस्त्रों से सजाया जाता है। उत्सव का अंत विजयदशमी के दिन ष्पूजा इदप्पुष् के साथ होता है। महाराज स्वाथिथिरूनाल द्वारा आरंभ शास्त्रीय संगीत गायन की परंपरा यहाँ आज भी जीवित है। तमिलनाडु में मुरगन मंदिर में होने वाली नवरात्र की गतिविधयाँ प्रसिद्ध हंै। गुजरात मंे दशहरा के दौरान गरबा व डांडिया-रास की झूम रहती है। मिट्टी के घडे़ में दीयों की रोशनी से प्रज्वलित ष्गरबोष् के इर्द-गिर्द गरबा करती महिलायें इस नृत्य के माध्यम से देवी का आह्मन करती हैं। गरबा के बाद डांडिया-रास का खेल खेला जाता है। ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया-रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है।
भारत त्यौहारों का देश है और हर त्यौहार कुछ न कुछ संदेश देता है-बन्धुत्व भावना, सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक तारतम्य, सभ्यताओं की खोज एवं अपने अतीत से जुडे़ रहने का सुखद अहसास। त्यौहार का मतलब ही होता है सारे गिले-शिकवे भूलकर एक नए सिरे से दिन का आगाज। त्यौहारों को मनाने के तरीके अलग हो सकते हैं पर उद्देश्य अंततः मेल-जोल एवं बंधुत्व की भावना को बढ़ाना ही है। त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग-द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं। समाज के हर वर्ग के लोगों को एक साथ मेल-जोल और भाईचारे के साथ बिठाने हेतु ही त्यौहारों का आरम्भ हुआ। यह एक अलग तथ्य है कि हर त्यौहार के पीछे कुछ न कुछ धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं होती हैं पर अंततः इनका उद््देश्य मानव-कल्याण ही होता है।

रविवार, 27 सितंबर 2009

इकोनोमी क्लास की यात्रा का ढोंग..किसलिए?

लो जी थरूर साहब भी केटल[इकोनोमी]क्लास में सफर को राजी हो गए!होते भी क्यूँ नहीं महारानी और युवराज़ जो ऐसा चाहते है!लेकिन इससे क्या होगा ?विमान तो अपने गंतव्य तक जाएगा ही ...!फ़िर किसके और कैसे .paise... बचेंगे ?ऊपर से सुरक्षा बलों ने कुछ सीटें और खाली करवा ली!सोनिया जी और राहुल के ऐसा चाहने से किसी का भला होने वाला नहीं है!अगर वास्तव में ही खर्चा कम करना है तो जनता के गाढे पैसे की बर्बादी रूकनी चाहिए!आज कोसा विधायक,मंत्री या कोई नेता ऐसा है जो अपने वेतन से काम चला रहा है?आज एक अदना सा आदमी अपने मासिक वेतन से घर नहीं चला सकता,उसे तो जैसे तैसे जीने की आदत पड़ चुकी है !और एक ये नेता जी है जो अपने वेतन से इतना कमा लेते है कि इन्हे किसी चीज़ कि कमी नहीं....!बस इसी बात में .सारा रहस्य छिपा है!आपने किसी नेता को भीख मांगते देखा है?मैंने बहुत से राष्ट्रीय खिलाड़ियों,पुरुस्कृत शिक्षकों और सवतंत्रता सेनानियों को रोज़ी रोटी के लिए संघर्ष करते देखा है!वे पूरी जिंदगी में इतना नही कमा सके कि अपना पेट भर सके और एक छोटा सा नेता पाँच साल में इतना कैसे कमा लेता है?इस प्रशन में ही सारे उत्तर .छिपे है!

शनिवार, 26 सितंबर 2009

रक्तदान के सम्बन्ध में जागरूक करने की जरुरत

क्या आपने कभी रक्तदान किया है ? यह सवाल अक्सर लोग पूछते हैं। रक्तदान वास्तव में किसी को जीवन दान ही है। आधा लीटर रक्त तीन लोगों का जीवन बचा सकता है और एक यूनिट ब्लड में 450 मि0ली0 रक्त होता है। जानकर आश्चर्य होगा कि विश्व में प्रतिवर्ष 8 करोड़ यूनिट से ज्यादा रक्त, रक्तदान से जमा होता है। इसमें विकासशील देशों का योगदान 38 प्रतिशत होता है, जबकि यहाँ दुनिया कि 82 प्रतिशत आबादी रहती है.पर दुर्भाग्यवश अपना भारत इसमें काफी पिछड़ा हुआ है या यूँ कहें कि लोग जागरूक नहीं हैं। हर वर्ष भारत को 90 लाख यूनिट रक्त की आवश्यकता होती है, पर जमा मात्र 60 लाख यूनिट की हो पाता है। राज्यवार गौर करें तो सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला राज्य उ0प्र0 स्वैच्छिक रक्तदान के मामले में पिछडे़ राज्यों में शामिल है, जहाँ मात्र 16 प्रतिशत लोग स्वैच्छिक रक्तदान में रूचि दिखाते हैं।

मेघालय में 10, मणिपुर में 10.08, उ0प्र0 में 16 व पंजाब 19.04 प्रतिशत स्वैच्छिक रक्तदान के साथ निचले पायदान पर तो पश्चिम बंगाल (87.6), त्रिपुरा (84), तमिलनाडु (83), महाराष्ट्र (78), चण्डीगढ़ (75) की गिनती बेहतर राज्यों में की जाती है। 2433 ब्लड बैंक भी हमारी जरूरत को नहीं पूरा कर पाते। नतीजन कहीं नकली खून का कारोबार बढ़ रहा है तो कहीं रक्तदान के नाम पर गोरखध्ंधा चल रहा है।

जरूरत है इस संबंध में लोगों को जागरूक करने की और स्वयं पहल करने की ताकि स्वैच्छिक रक्तदान की प्रक्रिया को बढ़ाया जा सके और रक्त के अभाव में किसी को जीवन का दामन न छोड़ना पड़े। याद आती हैं कवि दिनेश रघुवंशी की कुछ पंक्तियाँ-

मैं हूँ इंसान और इंसानियत का मान करता हूँ,
किसी की टूटती सांसों में हो फिर से नया जीवन
मैं बस यह जानकर अक्सर 'लहू' का दान करता हूँ !!


आकांक्षा यादव

शनिवार, 19 सितंबर 2009

नवरात्र की हार्दिक शुभकामनायें !!

!! नवरात्र पर नव-सृजन की ओर तत्पर हों !!
***नवरात्र की हार्दिक शुभकामनायें ***

बुधवार, 16 सितंबर 2009

लोक संस्कृति की प्रतीक मड़ई

मड़ई का 2008 का अंक, उस श्रृंखला की नवीनतम कड़ी है जिसका आरंभ 14 नवंबर, 1987 को हुआ था। छत्तीसगढ़ में यदुवंशी लोग कार्तिक मास की एकादशी (जिस दिन देव जागते हैं और तुलसी विवाह का पर्व भी मनाया जाता है) से आगामी पंद्रह दिवसों तक अतिविशिष्ट लोक नृत्य करते हैं जो ‘राउत नाचा‘ के नाम से विख्यात है। ‘मड़ई‘ के संपादक डाॅ0 कालीचरण यादव सन् 1978 से कोतवाली के प्रांगण में राउत नाचा को व्यवस्थत रूप से आयोजित करने का कार्य अपने संयोजकत्व में कर रहे थे ताकि यादवों की ऊर्जा का रचनात्मक उन्नयन हो सके। सन् 1987 में जब इस आयोजन को वृहत्तर रूप देने की आवश्यकता अनुमत हुई और आयोजन स्थल लाल बहादुर शास्त्री विद्यालय के प्रांगण को बनाया गया तभी ‘स्मारिका‘ के रूप में ‘मड़ई‘ का प्रकाशन भी आरंभ हुआ।

पहले अंक में कुल 35 लेख थे जिनमें से 31 लेख रावत नाच पर केंद्रित थे। आरंभ में रावत नाच का सांगोपांग निरूपण करना ही ‘मड़ई‘ का उद्देश्य था जो कि आगामी कुछ वर्षों तक बना रहा। फिर जल्दी ही इस पत्रिका ने स्वयं को आश्चर्यजनक गहराई और विस्तार देना आरंभ किया। यदुवंशियों की संस्कृति के ‘लोक पक्ष‘ का परिचय देने के बाद छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करते हुए ‘मड़ई‘ पूरे देश की लोक संस्कृति संबंधी ज्ञान का कोश बन गयी। देश के विभिन्न लोकांचलों के लोक साहित्य, लोक कला और लोक संस्कृति पर अधिकारी विद्वानों और लेखकों के लिखे सरस और तथ्यपूर्ण लेखों का हिंदी में प्रकाशन कर ‘मड़ई‘ने सामासिक लोक संस्कृति का विकास किया है और हर तरफ से राष्ट्र एवं राष्ट्रभाषा की अनूठी उपासना की है।

आज का समय एक ऐसा समय है जब लोक ही लोक के विरूद्ध युद्धरत है। लोक मानस में ‘प्रेय‘ निरंतर ‘श्रेय‘ को विस्थापित कर रहा है। ‘लोकतत्व‘, ‘लोकप्रिय‘ के द्वारा प्रतिदिन नष्ट और पराभूत किया जा रहा है। ‘लोक-समाज‘ का स्थान ‘जन-समाज‘ ने लगभग ले लिया है। जन-समाज की विडंबनाओं का चित्रण करते हुए टाॅक्केविले ने लिखा है- ‘सभी समान और सदृश्य असंख्य व्यक्तियों की एक ऐसी भीड़ जो छोटे और तुच्छ आनंद की प्राप्ति के लिये सतत प्रयासरत है..... इनमें से प्रत्येक एक-दूसरे से अलग रहता है और सभी एक-दूसरे के भाग्य से अनभिज्ञ होते हैं। उनके समस्त मानव संसार की कल्पना उनकी संतानों और निजी मित्रों तक सीमित होती है। जहां तक अन्य नागरिकों का प्रश्न है वे उनके नजदीक अवश्य हैं पर उन्हें जानते नहीं, वे परस्पर स्पर्श करते हैं पर एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील नहीं हंै।‘

वैश्वीकरण का हिरण्याक्ष पृथ्वी का अपहरण कर विष्ठा के परकोटे के भीतर उसे रखने हेतु लिये जा रहा है। ‘मड़ई‘ इस अपहृत होती हुई पृथ्वी के लोक जीवन के नैसर्गिक-सामाजिक सौंदर्य की गाथा है। वह वराह-अवतार को संभव करने वाला मुकम्मल आह्नान भले न हो पर एक पवित्र और सुंदर अभिलाषा तो जरूर है। हमारी स्मृतियों में तो नहीं, पर ‘मड़ई‘ जैसी विरल पत्रिकाओं में यह लोक जीवन दर्ज रहेगा। ऐसा इसलिए कि लोकसंस्कृति से दूर जाना ही स्मृतिविहीन होना है। ‘मड़ई‘ के ‘स्मारिका‘ होने का शायद यही संदर्भ है। मड़ई सर्वथा निःशुल्क वितरण के लिए है। इसका मूल्य आंका नहीं जा सकता।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

बदल रही है हिन्दी (हिन्दी-दिवस पर विशेष)

आज हिन्दी भारत ही नहीं वरन् पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, इराक, इंडोनेशिया, इजरायल, ओमान, फिजी, इक्वाडोर, जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस, ग्रीस, ग्वाटेमाला, सउदी अरब, पेरू, रूस, कतर, म्यंमार, त्रिनिदाद-टोबैगो, यमन इत्यादि देशों में जहाँ लाखों अनिवासी भारतीय व हिन्दी -भाषी हैं, में भी बोली जाती है। चीन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, व जापान इत्यादि राष्ट्र जो कि विकसित राष्ट्र हैं की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नहीं वरन् उनकी खुद की मातृभाषा है। फिर भी ये दिनों-ब-दिन तरक्की के पायदान पर चढ़ रहे हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में अंग्रेजी के बिना विकास नहीं हो पाने की अवधारणा को इन विकसित देशों ने परे धकेल दिया है। निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषन को मूल......आज वाकई इस बात को अपनाने की जरूरत है। भूमण्डलीकरण एवं सूचना क्रांति के इस दौर में जहाँ एक ओर ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ बढ़ा है, वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीतियों ने भी विकासशील व अविकसित राष्ट्रों की संस्कृतियों पर प्रहार करने की कोशिश की है। सूचना क्रांति व उदारीकरण द्वारा सारे विश्व के सिमट कर एक वैश्विक गाँव में तब्दील होने की अवधारणा में अपनी संस्कृति, भाषा, मान्यताओं, विविधताओं व संस्कारों को बचाकर रखना सबसे बड़ी जरूरत है। एक तरफ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जहाँ हमारी प्राचीन संपदाओं का पेटेंट कराने में जुटी हैं वहीं इनके ब्राण्ड-विज्ञापनों ने बच्चों व युवाओं की मनोस्थिति पर भी काफी प्रभाव डाला है, निश्चिततः इन सबसे बचने हेतु हमंे अपनी आदि भाषा संस्कृत व हिन्दी की तरफ उन्मुख होना होगा।

हम इस तथ्य को नक्कार नहीं सकते कि हाल ही में प्रकाशित आॅक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में हिन्दी के तमाम प्रचलित शब्दों, मसलन-आलू, अच्छा, अरे, देसी, फिल्मी, गोरा, चड्डी, यार, जंगली, धरना, गुण्डा, बदमाश, बिंदास, लहंगा, मसाला इत्यादि को स्थान दिया गया है तो दूसरी तरफ अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा कार्यक्रम के तहत अपने देशवासियों से हिन्दी, फारसी, अरबी, चीनी व रूसी भाषायें सीखने को कहा है। अमेरिका जो कि अपनी भाषा और अपनी पहचान के अलावा किसी को श्रेष्ठ नहीं मानता, हिन्दी सीखने में उसकी रूचि का प्रदर्शन निश्चिततः भारत के लिए गौरव की बात है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्पष्टतया घोषणा की कि-‘‘हिन्दी ऐसी विदेशी भाषा है, जिसे 21वीं सदी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिका के नागरिकों को सीखनी चाहिए।’’ इसी क्रम में अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र की प्रतियां अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी और मलयालम में भी छपवाकर वितरित कीं। ओबामा के राष्ट्रपति चुनने के बाद सरकार की कार्यकारी शाखा में राजनैतिक पदों को भरने के लिए जो आवेदन पत्र तैयार किया गया उसमें 101 भाषाओं में भारत की 20 क्षेत्रीय भाषाओं को भी जगह दी गई। इनमें अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, माघी व मराठी जैसी भाषायें भी शामिल हैं, जिन्हें अभी तक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान तक नहीं मिल पाया है। ओबामा ने रमजान की मुबारकवाद उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी दी। यही नहीं टेक्सास के स्कूलों में पहली बार ‘नमस्ते जी‘ नामक हिन्दी की पाठ्यपुस्तक को हाईस्कूल के छा़त्रों के लिए पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। 480 पेज की इस पुस्तक को भारतवंशी शिक्षक अरूण प्रकाश ने आठ सालों की मेहनत से तैयार की है। इसी प्रकार जब दुनिया भर में अंग्रेजी का डंका बज रहा हो, तब अंग्रेजी के गढ़ लंदन में बर्मिंघम स्थित मिडलैंड्स वल्र्ड टेªड फोरम के अध्यक्ष पीटर मैथ्यूज ने ब्रिटिश उद्यमियों, कर्मचारियों और छात्रों को हिंदी समेत कई अन्य भाषाएं सीखने की नसीहत दी है। यही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान हिन्दी का अकेला ऐसा सम्मान है जो किसी दूसरे देश की संसद, ब्रिटेन के हाउस आॅफ लॉर्ड्स में प्रदान किया जाता है। आज अंग्रेजी के दबदबे वाले ब्रिटेन से हिन्दी लेखकों का सबसे बड़ा दल विश्व हिन्दी सम्मेलन में अपने खर्च पर पहुँचता है।

निश्चिततः भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र, सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र और सबसे बडे़ उपभोक्ता बाजार कीे भाषा हिन्दी को नजर अंदाज करना अब सम्भव नहीं रहा। प्रतिष्ठित अंग्रेजी प्रकाशन समूहों ने हिन्दी में अपने प्रकाशन आरम्भ किए हैं तो बी0 बी0 सी, स्टार प्लस, सोनी, जी0 टी0 वी0, डिस्कवरी आदि अनेक चैनलों ने हिन्दी में अपने प्रसारण आरम्भ कर दिए हैं। हिन्दी फिल्म संगीत तथा विज्ञापनों की ओर नजर डालने पर हमें एक नई प्रकार की हिन्दी के दर्शन होते हैं। यहाँ तक कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों में अब क्षेत्रीय बोलियों भोजपुरी इत्यादि का भी प्रयोग होने लगा है और विज्ञापनों के किरदार भी क्षेत्रीय वेश-भूषा व रंग-ढंग में नजर आते हैं। निश्चिततः मनोरंजन और समाचार उद्योग पर हिन्दी की मजबूत पकड़ ने इस भाषा में सम्प्रेषणीयता की नई शक्ति पैदा की है पर वक्त के साथ हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में विकसित करने हेतु हमें भाषाई शुद्धता और कठोर व्याकरणिक अनुशासन का मोह छोड़ते हुए उसका नया विशिष्ट स्वरूप विकसित करना होगा अन्यथा यह भी संस्कृत की तरह विशिष्ट वर्ग तक ही सिमट जाएगी। हाल ही मे विदेश मंत्रालय ने इसी रणनीति के तहत प्रति वर्ष दस जनवरी को ‘विश्व हिन्दी दिवस’ मनाने का निर्णय लिया है, जिसमें विदेशों मे स्थित भारतीय दूतावासों में इस दिन हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन किया जाएगा। आगरा के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में देश का प्रथम हिन्दी संग्रहालय तैयार किया जा रहा है, जिसमें हिन्दी विद्वानों की पाण्डुलिपियाँ, उनके पत्र और उनसे जुड़ी अन्य सामग्रियाँ रखी जायेंगी।

आज की हिन्दी वो नहीं रही..... बदलती परिस्थितियों में उसने अपने को परिवर्तित किया है। विज्ञान-प्रौद्योगिकी से लेकर तमाम विषयों पर हिन्दी की किताबें अब उपलब्ध हैं, क्षेत्रीय अखबारों का प्रचलन बढ़ा है, इण्टरनेट पर हिन्दी की बेबसाइटों में बढ़ोत्तरी हो रही है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कई कम्पनियों ने हिन्दी भाषा में परियोजनाएं आरम्भ की हैं। सूचना क्रांति के दौर में कम्प्यूटर पर हिन्दी में कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रतिष्ठान सी-डैक ने निःशुल्क हिन्दी साटवेयर जारी किया है, जिसमें अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। माइक्रोसॉफ्ट ने आफिस हिन्दी के द्वारा भारतीयों के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग आसान कर दिया है। आई0 बी0 एम0 द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर में हिन्दी भाषा के 65,000 शब्दों को पहचानने की क्षमता है एवं हिन्दी और हिन्दुस्तानी अंग्रेजी के लिए आवाज पहचानने की प्रणाली का भी विकास किया गया है जो कि शब्दों को पहचान कर कम्प्यूटर लिपिबद्ध कर देती है। एच0 पी0 कम्प्यूटर्स एक ऐसी तकनीक का विकास करने में जुटी हुई है जो हाथ से लिखी हिन्दी लिखावट को पहचान कर कम्प्यूटर में आगे की कार्यवाही कर सके। चूँकि इण्टरनेट पर ज्यादातर सामग्री अंग्रेजी में है और अपने देश में मात्र 13 फीसदी लोगों की ही अंग्रेजी पर ठीक-ठाक पकड़ है। ऐसे में हाल ही में गूगल द्वारा कई भाषाओं में अनुवाद की सुविधा प्रदान करने से अंग्रेजी न जानने वाले भी अब इण्टरनेट के माध्यम से अपना काम आसानी से कर सकते हैं। अपनी तरह की इस अनोखी व पहली सेवा में हिन्दी, तमिल, तेलगू, कन्नड़ और मलयालम का अंग्रेजी में अनुवाद किया जा सकता है। यह सेवा इण्टरनेट पर www.google.in/translate_t टाइप कर हासिल की जा सकती है। आज हिन्दी के वेब पोर्टल समाचार, व्यापार, साहित्य, ज्योतिषी, सूचना प्रौद्योगिकी एवं तमाम जानकारियां सुलभ करा रहे हैं। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में भी हिन्दी के प्रति दुराग्रह खत्म हो गया है। निश्चिततः इससे हिन्दी भाषा को एक नवीन प्रतिष्ठा मिली है।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

दस साल का हुआ ब्लॉग

ब्लागिंग का आकर्षण दिनो-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। जहाँ वेबसाइट में सामान्यतया एकतरफा सम्प्रेषण होता है, वहीं ब्लाग में यह लेखकीय-पाठकीय दोनों स्तर पर होता है। ब्लाग सिर्फ जानकारी देने का साधन नहीं बल्कि संवाद का भी सशक्त माध्यम है। ब्लागिंग को कुछ लोग खुले संवाद का तरीका मानते हैं तो कुछेक लोग इसे निजी डायरी मात्र। ब्लाग को आक्सफोर्ड डिक्शनरी में कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है-‘‘एक इंटरनेट वेबसाइट जिसमें किसी की लचीली अभिव्यक्ति का चयन संकलित होता है और जो हमेशा अपडेट होती रहती है।‘‘

वर्ष 1999 में आरम्भ हुआ ब्लाग वर्ष 2009 में 10 साल का सफर पूरा कर चुका है। गौरतलब है कि पीटर मर्होत्ज ने 1999 में ‘वी ब्लाग‘ नाम की निजी वेबसाइट आरम्भ की थी, जिसमें से कालान्तर में ‘वी‘ शब्द हटकर मात्र ‘ब्लाग‘ रह गया। 1999 में अमेरिका में सैनफ्रांसिस्को में इण्टरनेट में ऐसी अनुपम व्यवस्था का इजाद किया गया, जिसमें कई लोग अपनी अभिव्यक्तियां न सिर्फ लिख सकें बल्कि उन्हें नियमित रूप से अपडेट भी कर सकें। यद्यपि कुछ लोग ब्लाग का आरम्भ 1994 से मानते हैं जब एक युवा अमेरिकी ने अपनी अभिव्यक्तियाँ नियमित रूप से अपनी वेबसाइट में लिखना आरम्भ किया तो कुछ लोग इसका श्रेय 1997 में जान बारजन द्वारा आरम्भ की गई वेबलाग यानी इण्टरनेट डायरी को भी देते हैं। पर अधिकतर लोग ब्लाग का आरम्भ 1999 ही मानते हैं। ब्लाग की शुरूआत में किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन ब्लाग इतनी बड़ी व्यवस्था बन जायेगा कि दुनिया की नामचीन हस्तियां भी अपनी दिल की बात इसके माध्यम से ही कहने लगेंगी। आज पूरी दुनिया में 13.3 करोड़ से ज्यादा ब्लागर्स हैं तो भारत में लगभग 32 लाख लोग ब्लागिंग से जुड़े हुए हैं।

ब्लागिंग का क्रेज पूरे विश्व में छाया हुआ है। अमेरिका में सवा तीन करोड़ से ज्यादा लोग नियमित ब्लागिंग से जुडे़ हुए हैं, जो कि वहां के मतदाताओं का कुल 20 फीसदी हैं। इसकी महत्ता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2008 में सम्पन्न अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान इस हेतु 1494 नये ब्लाग आरम्भ किये गये। तमाम देशों के प्रमुख ब्लागिंग के माध्यम से लोगों से रूबरू होते रहते हैं। इनमें फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी और उनकी पत्नी कार्ला ब्रूनी से लेकर ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद तक शामिल हैं। भारत में राजनेताओं में लालू प्रसाद यादव, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तो फिल्म इण्डस्ट्री में अभिताभ बच्चन, शाहरूख खान, आमिर खान, शिल्पा शेट्टी, मनोज बाजपेई, प्रकाश झा इत्यादि के ब्लाग मशहूर हैं। साहित्य से जुड़ी तमाम हस्तियां-उदय प्रकाश, गिरिराज किशोर, विष्णु नागर अपने ब्लाग के माध्यम से पाठकों से रूबरू हो रहे हैं। सेलिब्रेटीज के लिए ब्लाग तो बड़ी काम की चीज है। परम्परागत मीडिया उनकी बातों को नमक-मिर्च लगाकर पेश करता रहा है, पर ब्लागिंग के माध्यम से वे अपनी वास्तुस्थिति से लोगों को अवगत करा सकते हैं।
आज ब्लाग परम्परागत मीडिया का एक विकल्प बन चुका है। ब्लाग सिर्फ राजनैतिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक-कला-सामाजिक गतिविधियों के लिए ही नहीं जाना जाता बल्कि, तमाम कारपोरेट ग्रुप इसके माध्यम से अपने उत्पादों के संबंध में सर्वे भी करा रहे हैं। वास्तव में देखा जाय तो ब्लाग एक प्रकार की समालोचना है, जहाँ पाठक आपके गुण-दोष दोनों को अभिव्यक्त करते हैं।
आकांक्षा यादव

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

बढ़ते चरण शिखर की ओर: एक विहंगावलोकन

साहित्य और साहित्यकार दोनों एक ही नव निर्माण प्रक्रिया के दो पहलू होते हैं। इस दृष्टि से किसी भी साहित्यकार के कृतित्व के अध्ययन के लिए उसके व्यक्तित्व का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि सर्जक व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक घटनाएँ जैसे पूर्व संस्कार, बचपन के संस्कार, पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक इत्यादि का कलाकार एवं सर्जक के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति अगर साहित्यकार हो तो उसके कृतित्व में किसी न किसी रूप में उसके व्यक्तित्व की झलक स्पष्ट दिखाई दे जाती है। इन स्थितियों के लिये तत्कालीन देश, काल एवं वातावरण की अहम् भूमिका होती है। दुर्गाचरण मिश्र द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव‘‘ को इसी परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है।

32 वर्षीय युवा कृष्ण कुमार यादव भारतीय डाक सेवा के उच्च पदस्थ अधिकारी हैं, कवि हैं, कहानीकार हैं, निबंधकार हैं, बाल साहित्यकार हैं, संपादन कला में भी दक्ष हैं। अपनी साहित्यिक रचनाधर्मिता के साथ-साथ वह प्रकृति-प्रेमी, पर्यटक, समाजसेवी, स्वाध्याय प्रेमी, संगीत श्रोता, स्नेही मित्र और कुशल प्रशासक भी हैं। उनके लिए साहित्य मात्र उत्सवधर्मिता का परिचायक नहीं बल्कि उसके माध्यम से वे जीवन के रंगों और उसमें व्याप्त आनंद की खोज व अन्वेषण करते हैं। अपने इन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण कृष्ण कुमार अपनी जीवन-संगिनी आकांक्षा के वरेण्य बने हुए हैं। बेटी के प्रति वात्सल्य-वर्षण में दम्पति युग्म प्रतिस्पर्धी है। कृष्ण कुमार का व्यक्तित्व पिताश्री की कर्तव्यनिष्ठा, अध्ययन, अभिरुचि, लेखन का अभ्यास, लक्ष्य प्राप्ति हेतु अथक प्रयास तथा सरलमना ममतामयी माँ के उत्सर्ग-परायण अन्तःकरण का सुखद समन्वय प्रतीत होता है। उनका प्रियदर्शन व्यक्तित्व सर्वाधिक आकर्षक एवं सम्मोहक है। प्रसाद जी की पंक्ति याद आती है-
हृदय की अनुकृति बाह्य उदार
एक लम्बी काया उन्मुक्त।

‘बढ़ते चरण शिखर की ओर‘ में कृष्ण कुमार के समग्र साहित्यिक कृतित्व का मूल्यांकन किया गया है। विद्वान समीक्षकों ने विभिन्न विधाओं में सृजित श्री यादव की रचनाओं की मुक्तकण्ठ से सराहना की है। उनकी रचनाओं में सामाजिक सरोकारों की प्रतिबद्धता, परिवारिक रिश्तों की मिठास, भारतीय संस्कृति के प्रेरक आदर्श, दलितों-शोषितों के प्रति सहज सहानुभूति, ममतामयी नारी के उदात्त एवं दयनीय जीवन के विविध रूप, बाल-मन की सरलता-तरलता, राष्ट्र की अस्मिता-रक्षा हेतु प्राणोत्सर्ग करने वाले क्रान्तिवीरों के प्रति प्रणति, भ्रष्टाचार को नकारने का उद्दाम आक्रोश, उपलब्धियों की बुलन्दियों पर पहुँचने का अदम्य उत्साह और इन सबसे परे उनका मानवतावादी जीवन-दर्शन यत्र-तत्र-सर्वत्र लक्षित होता है। उनकी कविताएंँ, कहानियाँ, निबन्ध, बाल साहित्य, इतिहास लेखन सभी उनकी संवेदनशीलता, वैचारिक उत्कर्ष, ओजपूर्ण मनस्विता एवं मानवतावादी जीवन-दर्शन का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। पुस्तक के सुधी संपादक साहित्यकार दुर्गा चरण मिश्र के द्वारा कृष्ण कुमार यादव के बहुआयामी व्यक्तित्व पर आधारित मूल्यांकनपरक आलेखों, विद्वतजनों की सार्थक टिप्पणियों एवं श्री यादव की जीवन-गाथा सहेजती अट्ठासी छन्दों में विस्तारित कविता द्वारा इसे पठनीय एवं संग्रहणीय बनाने का प्रयास निःसंदेह सराहनीय है। प्रस्तुत पुस्तक कृष्ण कुमार यादव के प्रति समर्पित महत्वपूर्ण महानुभावों की भाव-सुमनांजलि से सुवासित है।

‘बढ़ते चरण शिखर की ओर‘ में कृष्ण कुमार यादव की रचनाओं के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों की सम्मतियाँ उल्लेखनीय हैं। ये सम्मतियाँ उनकी रचनाधर्मिता के साथ-साथ व्यक्तित्व को भी विस्तार देती हैं। पुस्तक की भूमिका में प्रसिद्ध समालोचक सेवक वात्स्यायन लिखते हैं कि कृष्ण कुमार यादव अपने जीवन के अभी पूरे-पूरे तीन दशक ही देख सके हैं कि उनकी मेधा और निष्ठामय श्रम के उदात्त उदाहरण व्यवहारवादी जीवन-दर्शन से लेकर, सिद्धान्त-भूमियों से लेकर भावमय संसार तक प्रस्थित हो उठे हैं। उन्होंने साहित्य-जगत् में भी विविध आयामों में, विविध सोपानों में अपनी प्रतिभा-राशि का आंशिक और समुच्चयित किरण-विकीर्णन प्रस्तुत कर चमत्कृत भी किया है और भावाभिभूत भी। जानेमाने गीतकार व साहित्यकार गोपालदास ‘नीरज‘, कृष्ण कुमार यादव की रचनाओं में बुद्धि और हृदय का एक अपूर्व संतुलन महसूस करते हंै तो प्रो0 सूर्य प्रसाद दीक्षित के मत में कृष्ण कुमार के पास पर्याप्त भाव-सम्पदा है, जागृत संवेदना है, सक्षम काव्य-भाषा है और खुला आकाश है। डाॅ0 रामदरश मिश्र का अभिमत है कि कृष्ण कुमार की कविताएं सहज हैं, पारदर्शी हैं, अपने समय के सवालों और विसंगतियों से रूबरू हैं। चर्चित कवि यश मालवीय श्री यादव को उनके विभाग की भावभूमि से जोड़ते हुए लिखते हैं कि वास्तव में अपने रचना-कर्म में कृष्ण कुमार चिट्ठीरसा ही लगते हैं, जीवन और जगत को भावनाओं कल्पनाओं की रसभीनी चिट्ठी इधर से उधर पहुँचाते हुए। डाॅ0 गणेश दत्त सारस्वत उनकी निबंध-कला पर जोर देते हुए कहते हैं कि- कृष्ण कुमार के निबन्ध अनुभूतिपरक हैं, चिन्तन प्रधान हंै तथा दार्शनिकता का पुट लिए हुए हैं इसलिए सर्वस्पर्शी हैं। इससे परे डाॅ0 रामस्वरूप त्रिपाठी श्री यादव की रचनाओं में विमर्शों को खंगालते हुए व्यक्त करते हैं कि-स्त्री-विमर्श का यथार्थ, दलित चेतना की सोच कृष्ण कुमार की कविताओं में वर्तमान का सत्य बनकर उभरी हैं। वरिष्ठ कथाकार गोवर्धन यादव के मत में कृष्ण कुमार की कहानियों में प्रेम की मासूमियत, अन्तद्र्वन्द्व, व्यवस्था की विसंगतियाँ व समसामयिक घटनाओं के बहाने समकालीन सरोकारों को भी उकेरा गया है। आकांक्षा यादव तो रचनाधर्मिता को श्री यादव के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग रूप में देखती हैं। रविनंदन सिंह इसे आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं कि युवा कवि कृष्ण कुमार यादव ने नारी चेतना को आधुनिक संदर्भों से जोड़कर ग्रहण किया है। श्री यादव की रचनाओं पर साहित्यकारों की ही नहीं समाजसेवियों और राजनेताओं की भी दृष्टि गयी है। बतौर केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल-‘क्रान्ति यज्ञ‘ एक पुस्तक नहीं, बल्कि अपने आप में एक शोध ग्रन्थ है।

‘बढ़ते चरण शिखर की ओर‘ में कृष्ण कुमार यादव के जन्म से लेकर आज तक के 32 वर्षीय विकास-क्रम को शब्द-शिल्प से सजाया गया है। कृष्ण कुमार की कलम विद्यार्थी जीवन से ही चलने लगी। ‘हम नवोदय के बच्चे‘ बाल गीत से आरम्भ हुआ उनका काव्य सृजन कब और कैसे बढ़ता गया पता ही नहीं चला। कभी कल्पनाओं में, कभी प्रकृति के सौंदर्य तो कभी जीवन की सच्चाईयों व बहुरंगे अनुभवों से गुजरती हुई कविता इलाहाबाद में अध्ययन के दौरान गद्य की ओर भी उन्मुख हुई। नवोदय विद्यालय का अल्हड़ किशोर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान देश-विदेश की गतिविधियों में रूचि लेने वाला जागरूक युवा छात्र बनकर उभरता है। पिताश्री के सपनों को साकार करने हेतु सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में डूब जाता है और अपने आत्म-विश्वास के अनुरूप प्रथम प्रयास में ही सफलता अर्जित कर भारतीय डाक सेवा का उच्चाधिकारी बनता है। साहित्य-सृजन के लिए कलम उठाता है तो अल्पावधि में ही भारत की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में बहार बनकर छा जाता है। जीवन-संगिनी मिलती है वह भी कलम की सिपहसालार। ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्ण कुमार ने जो भी सपना देखा, परमात्मा ने उसे अविलम्ब साकार कर दिया। उनकी बतरस की बाँसुरी से ऐसी मधुर एवं सुरीली स्वर लहरी प्रवाहित होती है कि श्रोता के पास रससिक्त होने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं बचता।

कभी-कभी लगता है जैसे कृष्ण कुमार अपने नाम को सार्थक करने की आकांक्षा से प्रतिपल अनुप्राणित हैं। जीवन और जगत की विसंगतियों से टक्कर लेने की संवेदनशील छटपटाहट है। पुस्तक के संपादक दुर्गाचरण मिश्र जी ने कृष्ण कुमार यादव की रचनाओं के पृष्ठ भी इसके साथ संलग्न कर लिए होते, तो एक नयी काव्य-विधा का ‘कुमार कृष्णायन‘ बनकर तैयार हो जाता। खैर, महाभारत जैसी रचनाएं तो शनैः शनैः अपना आकार-विस्तार प्राप्त करती हैं। अन्त में मैं कृष्ण कुमार यादव के कृतित्व को अपनी भाव-सुमनांजलि अर्पित करते हुए एक श्लोक उद्धृत करने की अनुमति चाहता हूँ।
जयन्ति ते सृकृतिनः रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्तियेषां यशःकाये जरामरणजं भयम्।।

कृतिः बढ़ते चरण शिखर की ओर सम्पादकः दुर्गाचरण मिश्र, पृष्ठः 148 मूल्यः रू0 150 संस्करणः 2009 प्रकाशकः उमेश प्रकाशन, 100, लूकरगंज, इलाहाबाद समीक्षकः राजकुमार अवस्थी, प्रधानाचार्य (से0नि0), नरवल, कानपुर-209401

रविवार, 6 सितंबर 2009

ऐतिहासिक रहे दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव इस बार ऐतिहासिक रहे. 18 वर्षो के बाद अध्यक्ष पद पर जहाँ निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की है, वहीँ चार में से तीन पदों पर पहली बार महिलाओं ने ही विजय दर्ज की है.इसी प्रकार समाजवादी छात्र सभा ने पहली बार दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनावों में कोई विजय दर्ज की है.अध्यक्ष पद पर बौद्ध अध्ययन विभाग के छात्र मनोज चौधरी चुने गए हैं। उन्होंने ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के बजिंदर सिंह को 11 मतों से हराया। इससे पहले 1991 में निर्दलीय उम्मीदवार राजीव गोस्वामी डूसू से अध्यक्ष बने थे। उन्होंने 1990 में पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के विरोध में आत्मदाह की कोशिश की थी। गौरतलब है की शीर्ष पद के लिए एबीवीपी और एनएसयूआई के उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया गया था।

उपाध्यक्ष पर एबीवीपी की कृति वढ़ेरा और सचिव पद पर एनएसयूआई की अर्शदीप कौर ने जीत दर्ज की। कृति वढ़ेरा मिरांडा हाउस की और अर्शदीप कौर विधि संकाय की छात्रा हैं। हंसराज कॉलेज की छात्रा और समाजवादी छात्र सभा की उम्मीदवार अनुप्रिया त्यागी संयुक्त सचिव चुनी गई हैं। समाजवादी छात्र सभा ने पहली बार दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनावों में कोई विजय दर्ज की है.दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनावों में चार में से तीन पदों पर पहली बार महिलाओं ने ही विजय दर्ज की है. ऐसा 60 साल में पहली बार हुआ है.

शनिवार, 5 सितंबर 2009

गुरु-शिष्य की बदलती परम्परा (शिक्षक दिवस पर विशेष)

गुरूब्र्रह्म गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः
गुरूः साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नमः
भारत में गुरू-शिष्य की लम्बी परम्परा रही है। प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरू की सेवा भी करते थे। राम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनि, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरूदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे उसके हाथ का अंगूठा ही मांग लिया।

आजादी के बाद गुरू-शिष्य की इस दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को ‘‘शिक्षक दिवस‘‘ के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डाॅ0 राधाकृष्णन ने कहा कि-‘‘मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूंगा।‘‘ तब से लेकर हर 5 सितम्बर को ‘‘शिक्षक दिवस‘‘ के रूप में मनाया जाता है। डाॅ0 राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने के हकदार वही हैं, जो लोगों से अधिक बुद्विमान व अधिक विनम्र हों। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। डाॅ0 राधाकृष्णन शिक्षा को जानकारी मात्र नहीं मानते बल्कि इसका उद्देश्य एक जिम्मेदार नागरिक बनाना है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डाॅ0 राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केन्द्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते हैं। यह राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरू-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्याार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। यही नहीं तमाम शिक्षक अपनी नैतिक मर्यादायें तोड़कर छात्राओं के साथ अश्लील कार्यों में लिप्त पाये गये। आज न तो गुरू-शिष्य की वह परंपरा रही और न ही वे गुरू और शिष्य रहे। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरू और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके।
आकांक्षा यादव

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

ब्लोगिंग से युवाओं को जोडें......


ब्लोगिंग आज बहुत ही लोकप्रिय होती जा रही है.!इतने अच्छे अच्छे ब्लॉग रोज़ आ रहे है...!लगभग हर विषय पर ब्लॉग लिखे जा रहे है!यहाँ तक की बड़ी बड़ी सेलिब्रिटीज़ भी ब्लॉग का सहारा ले रही है !हर कोई ब्लॉग के जरिये अपने विचार सब के सामने रख रहा है!अकेले चिठा जगत पर ही रोजाना लगभग २५ ब्लॉग रोज़ .रजिस्टर हो रहे है!मुझे इन्टरनेट यूज़ करते आज ५ साल हो गए लेकिन असली संतुष्टि ब्लोगिंग से ही मिली !इसके ज़रिये कितने ही .लोगों से परिचय हुआ है और नई नई जानकारियां भी हुई है!लेकिन मैंने नोट किया है की आज भी अधिकाँश युवा इन्टरनेट पर चाटिंग या फ़िर सोशल नेट्वर्किंग में ही उलझे है !शायद इसका कारण .ब्लोगिंग के बारे में अनभिज्ञता ही है !जो लोग काफ़ी समय से ब्लॉग लिख रहे है,उन्हें चाहिए की इस बारे में वे कुछ प्रयास करे !युवा ही देश का भविष्य है ..यदि वे अपने विचार सबके सामने रखेंगे तो निश्चित तौर पर ब्लोगिंग के लिए एक शुभ संकेत होगा !तो आइये हम सब मिल कर ये कोशिश करें की अधिक से अधिक लोग विशेषत:...युवा इससे जुड़े...!जानकर लोगों को चाहिए की ऐसा कोई मंच प्रस्तुत करें जहाँ इस सम्बन्ध में ज्यादा जानकारी मिल सके....

रविवार, 23 अगस्त 2009

|| ॐ गं गणपतये नमो नमः ||



|| ॐ गं गणपतये नमो नमः |||| श्री सिद्धिविनायक नमो नमः ||
|| अष्टविनायक नमो नमः |||| वक्रतुंडाय नमो नमः ||

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

चिंतन से पहले चिंता में बी जे पी



जी हाँ ,आख़िर बी जे पी में वह तूफ़ान आ ही गया जो लोकसभा चुनावों ऐ हार के बाद आना था!लेकिन उस समय पार्टी सदमे में थी सो सभी नेता अपना अपना चेहरा छुपाने में जुट गए!किसी ने हार के कारणों पर मनन या चिंतन करना उचित नहीं समझा!सब एक दूसरे पर दोषारोपण में व्यस्त हो गए!और देखिये एक बड़ी राष्ट्रीय ..पार्टी की क्या हालत हो गई!लेकिन बड़े नेताओं ने फ़िर भी कोई सबक नहीं लिया!सबसे पहले तो आडवानी जी जिन्हें पूरी तरह से नकार दिया गया,इस्तीफा देते!फ़िर नई टीम बने जाती जो युवा हो ,उर्जावान हो और सबसे बड़ी बात जिन पर जनता भरोसा कर सके!क्योंकि पुराने नेता तो अपना भरोसा खो ही चुकें है!जनता ने पार्टी को नहीं इसके आपस में लड़ते नेताओं को नकारा है,जो देश को ..स्थिर सरकार का विशवास नहीं दिला पाए...!ये नेताओं की असफलता थी,नेताओं की नहीं...!लेकिन देखिये हुआ क्या.......!जिन्ना मुद्दे पर .आडवानी जी इस्तीफा नहीं देते,लेकिन जसवंत सिंह से इस्तीफा माँगा जाता है..!हार पर आडवानी जी इस्तीफा नहीं देते ,लेकिन वसुंधरा से इस्तीफा माँगा जाता है..!कांग्रेस पर आरोप लगाने वाली पार्टी ख़ुद इतनी कमजोर हो गई की क्या कहें..!देश को कुशल .सरकार देने का .वादा करने वाली पार्टी ख़ुद कुशल सेनापति नहीं दे पाई...!सारे के सारे नेता जनता के प्रति अपने कर्तव्य को भूल आपस में लड़ते रहे!और अब जब चिंतन का समय आया तो चिंता में डूब गए....!जिन लोगों ने बी जे पी को वोट दिया वो उससे क्या अपेक्षा करे?हार जीत चलती रहती है लेकिन पार्टी ख़तम होने के कगार पर पहुँच जाए,ये चिंतनीय बात है!क्या बी जे पी का अंत निकट है ?क्या पार्टी आपसी कलह से उबार पायेगी?क्या पार्टी पुराने समय को फ़िर दोहरा पाएगी?इन्ही सवालों के जवाब में ही पार्टी का भविष्य टिका है....

शनिवार, 15 अगस्त 2009

नेहरू ने 17 बार लहराया तिरंगा

देश में बीते छह दशक से जारी जश्न-ए-आजादी के सिलसिले में लाल किले की प्राचीर से सबसे ज्यादा 17 बार तिरंगा लहराने का मौका प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को मिला। वहीं उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने भी राष्ट्रीय राजधानी स्थित सत्रहवीं शताब्दी की इस धरोहर पर 16 बार राष्ट्रध्वज फहराया।

नेहरू ने आजादी के बाद सबसे पहले 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर झंडा फहराया और अपना बहुचर्चित संबोधन 'नियति से एक पूर्वनिश्चित भेंट' दिया। नेहरू 27 मई 1964 तक प्रधानमंत्री पद पर रहे। इस अवधि के दौरान उन्होंने लगातार 17 स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण किया। आजाद भारत के इतिहास में गुलजारी लाल नंदा और चंद्रशेखर ऐसे नेता रहे जो प्रधानमंत्री तो बने लेकिन उन्हें स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराने का एक भी बार मौका नहीं मिल सका।

नेहरू के निधन के बाद 27 मई 1964 को नंदा प्रधानमंत्री बने लेकिन उस वर्ष 15 अगस्त आने से पहले ही नौ जून 1964 को वह पद से हट गए और उनकी जगह लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। नंदा 11 से 24 जनवरी 1966 के बीच भी प्रधानमंत्री पद पर रहे। इसी तरह चंद्रशेखर 10 नवंबर 1990 को प्रधानमंत्री बने लेकिन 1991 के स्वतंत्रता दिवस से पहले ही उस वर्ष 21 जून को पद से हट गए।

लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद नंदा कुछ दिन प्रधानमंत्री पद पर रहे लेकिन बाद में 24 जनवरी 1966 को नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी ने सत्ता की बागडोर संभाली। नेहरू के बाद सबसे अधिक बार जिस प्रधानमंत्री ने लाल किले पर तिरंगा फहराया, वह इंदिरा ही रहीं।

इंदिरा 1966 से लेकर 24 मार्च 1977 तक और फिर 14 जनवरी 1980 से लेकर 31 अक्टूबर 1984 तक प्रधानमंत्री पद पर रहीं। बतौर प्रधानमंत्री अपने पहले कार्यकालमें उन्होंने 11 बार और दूसरे कार्यकाल में पांच बार लाल किले पर झंडा फहराया। स्वतंत्रता दिवस पर सबसे कम बार राष्ट्रध्वज फहराने का मौका चौधरी चरण सिंह 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980, विश्वनाथ प्रताप सिंह दो दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990, एच डी. देवेगौड़ा, एक जून 1996 से 21 अप्रैल 1997, और इंद्र कुमार गुजराल 21 अप्रैल 1997 से लेकर 28 नवंबर 1997, को मिला। इन सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों ने एक-एक बार 15 अगस्त को लाल किले से राष्ट्रध्वज फहराया।

नौ जून 1964 से लेकर 11 जनवरी 1966 तक प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री और 24 मार्च 1977 से लेकर 28 जुलाई 1979 तक प्रधानमंत्री रहे मोरारजी देसाई को दो-दो बार यह सम्मान हासिल हुआ। स्वतंत्रता दिवस पर पांच या उससे अधिक बार तिरंगा फहराने का मौका नेहरू और इंदिरा गांधी के अलावा राजीव गांधी, पी. वी. नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेई और मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मिला है।

राजीव 31 अक्तूबर 1984 से लेकर एक दिसंबर 1989 तक और नरसिंह राव 21 जून 1991 से 10 मई 1996 तक प्रधानमंत्री रहे। दोनों को पांच-पांच बार ध्वज फहराने का मौका मिला। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार का नेतृत्व कर चुके अटल बिहारी वाजपेई जब 19 मार्च 1998 से लेकर 22 मई 2004 के बीच प्रधानमंत्री रहे तो उन्होंने कुल छह बार लाल किले की प्राचीर से तिरंगा फहराया। इससे पहले वह एक जून 1996 को भी प्रधानमंत्री बने लेकिन 21 अप्रैल 1997 को ही उन्हें पद से हटना पड़ा था।

वर्ष 2004 के आम चुनाव में राजग की हार के बाद संप्रग सत्ता में आया और मनमोहन ने 22 मई 2004 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। तब से अब तक वह पांच बार स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले पर राष्ट्रध्वज फहरा चुके हैं। इस बार 63वें स्वतंत्रता दिवस पर वह छठी बार तिरंगा लहराएंगे और राष्ट्र को संबोधित करेंगे।
(साभार: जागरण)
(स्वतंत्रता दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें )

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं कृष्ण (कृष्ण-जन्माष्टमी की बधाई )

विगत पांच हजार वर्षों में श्रीकृष्ण जैसा अद्भुत व्यक्तित्व भारत क्या, विश्व मंच पर नहीं हुआ और न होने की संभावना है। यह सौभाग्य व पुण्य भारत भूमि को ही मिला है कि यहाँ एक से बढकर एक दिव्य पुरूषों ने जन्म लिया। इनमें श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा, अपूर्व और अनुपमेय है। हजारों वर्ष बीत जाने पर भी भारत वर्ष के कोने-कोने में श्रीकृष्ण का पावन जन्मदिन अपार श्रद्धा, उल्लास व प्रेम से मनाया जाता है। श्रीकृष्ण अतीत के होते हुए भी भविष्य की अमूल्य धरोहर हैं। उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी है कि उन्हें पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। मुमकिन है कि भविष्य में उन्हें समझा जा सकेगा। हमारे अध्यात्म के विराट आकाश में श्रीकृष्ण ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊंचाइयों पर जाकर भी गंभीर या उदास नहीं हैं। श्रीकृष्ण उस ज्योतिर्मयी लपट का नाम है जिसमें नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है जरूरत पड़ने पर युद्ध का महास्वीकार। धर्म व सत्य के रक्षार्थ महायुद्ध का उद्घोष। एक हाथ में वेणु और दूसरे में सुदर्शन चक्र लेकर महाइतिहास रचने वाला दूसरा व्यक्तित्व नहीं हुआ संसार में।

कृष्ण ने कभी कोई निषेध नहीं किया। उन्होंने पूरे जीवन को समग्रता के साथ स्वीकारा है। प्रेम भी किया तो पूरी शिद्दत के साथ, मैत्री की तो सौ प्रतिशत निष्ठा के साथ और युद्ध के मैदान में उतरे तो पूरी स्वीकृति के साथ। हाथ में हथियार न लेकर भी विजयश्री प्राप्त की। भले ही वो साइड में रहे। सारथी की जिम्मेदारी संभाली पर कौन नहीं जानता कि अर्जुन के पल-पल के प्रेरणा स्त्रोत और दिशा निर्देशक कृष्ण थे।

अल्बर्ट श्वाइत्जर ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बात बड़ी मूल्यवान कही। वह यह कि भारत का धर्म जीवन निषेधक है। यह बात एकदम सत्य है, यदि कृष्ण का नाम भुला दिया जाए तो ओशो के शब्दों में कृष्ण अकेले दुख के महासागर में नाचते हुए एक छोटे से द्वीप हैं। यानी कि उदासी, दमन, नकारात्मकता और निंदा के मरूस्थल में नाचते-गाते मरू-उद्यान हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि कृष्ण केवल रास रचैया भर थे। इन लोगों ने रास का अर्थ व मर्म ही नहीं समझा है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। संपूर्ण ब्राह्मांड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरूष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की एक झलक मात्र है। उस रास का कोई सामान्य या सेक्सुअल मीनिंग नहीं है। कृष्ण पुरूष तत्व है और गोपिकाएं प्रकृति। प्रकृति और पुरूष का महानृत्य है यह। विराट प्रकृति और विराट पुरूष का महारस है यह, तभी तो हर गोपी को महसूस होता है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं। यह कोई मनोरंजन नहीं, पारमार्थिक है।

कृष्ण एक महासागर हैं। वे कोई एक नदी या लहर नहीं, जिसे पकड़ा जा सके। कोई उन्हें बाल रूप से मानता है, कोई सखा रूप में तो कोई आराध्य के रूप में। किसी को उनका मोर मुकुट, पीतांबर भूषा, कदंब वृक्ष तले, यमुना के तट पर भुवनमोहिनी वंशी बजाने वाला, प्राण वल्लभा राधा के संग साथ वाला प्रेम रूप प्रिय है, तो किसी को उनका महाभारत का महापराक्रमी रणनीति विशारद योद्धा का रूप प्रिय है। एक ओर हैं-
वंशीविभूषित करान्नवनीरदाभात्,
पीताम्बरादरूण बिम्बफला धरोष्ठात्,
पूर्णेंदु संुदर मुखादरविंदनेत्रात्,
कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने।।

तो दूसरी ओर-
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।।

वस्तुतः श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूष हैं। पूर्णावतार सोलह कलाओं से युक्त उनको योगयोगेश्वर कहा जाता है और हरि हजार नाम वाला भी।

आज देश के युवाओं को श्रीकृष्ण के विराट चरित्र के बृहद अध्ययन की जरूरत है। राजनेताओं को उनकी विलक्षण राजनीति समझने की दरकार है और धर्म के प्रणेताओं, उपदेशकों को यह समझने की आवश्यकता है कि श्रीकृष्ण ने जीवन से भागने या पलायन करने या निषेध का संदेश कभी नहीं दिया। वे महान योगी थे तो ऋषि शिरोमणि भी। उन्होंने वासना को नहीं, जीवन रस को महत्व दिया। वे मीरा के गोपाल हैं तो राधा के प्राण बल्लभ और द्रोपदी के उदात्त सखा मित्र। वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान और सर्व का कल्याण व शुभ चाहने वाले हैं। अति रूपवान, असीम यशस्वी और सत् असत् के ज्ञाता हैं। जिसने भी श्रीकृष्ण को प्रेम किया या उनकी भक्ति में लीन हो गया, उसका जन्म सफल हो गया। धर्म, शौय और प्रेम के दैदीप्यमान चंद्रमा श्रीकृष्ण को कोटि कोटि नमन।
यतो सत्यं यतो धर्मों यतो हीरार्जव यतः !
ततो भवति गोविंदो यतः श्रीकृष्णस्ततो जयः !!

सत्या सक्सेना

बुधवार, 12 अगस्त 2009

भारत और इंडिया में बंटता देश



पिछले कुछ वर्षों में इस विभाजन को सपष्ट देखा जा सकता है!हमारा देश बहुत तेजी से बदल रहा है...लेकिन इसके दोनों चेहरे बहुत साफ़ साफ़ देखे जा सकते है!.पहला तो वह आधुनिक इंडिया है..जिसमे आसमान छूती इमारते है,साफ़ सड़कें और बिजली से जगमगाते शहर है..!सड़क पर दौड़ती महँगी गाडियाँ विदेश का सा भ्रम पैदा करती है!यहाँ लोग सूट बूट पहने शिक्षित है जो आम बोलचाल में भी अंग्रेज़ी बोलते है...!बड़े बड़े होटल ,माल और .मल्टी प्लेक्स किसी सपने जैसे लगते है..!यहाँ के लोग इंडियन कहलवाना पसंद करते है...!ये हमारे देश का आधुनिक रूप है जो एक सीमित क्षेत्र में दिखाई .देता है...!और इस चका चौंध से दूर कहीं एक भारत बसा है जो अभी भी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है..!यहाँ अभी सड़कें,होटल मॉल नहीं है..बिजली भी कभी कभार आती है...!यहाँ के लोग सीधे सादे है जो बहुत ज्यादा शिक्षित नहीं है,इसलिए इन्हे अपने अधिकारों के लिए अक्सर लड़ना पड़ता है..!इस भारत और इंडिया को देख कर भी अनदेखा करने वाले नेता है जो हमेशा अपना हित साधते रहते है !लेकिन अफ़सोस इस बात का है की हमारी ७० %आबादी गाँवों में रहती है लेकिन इन भारत वासियों के लिए न फिल्में बनती है ना .कार्यक्रम ...!सभी लोग बाकि ३०% आबादी को खुश करने में लगे है....!तभी तो देखिये वर्षा न होने पर जहाँ लोग रो रहे है,सूखे खेतों को देख कर किसान तड़प उठते है...दाने दाने को मोहताज़ हो जाते है ..!वहीं ये इंडियन रैन डांस करने जाते है ..इनके लिए .कृतिम बरसात भी हो जाती है...!क्या कभी पिज्जा खाने वाले लोग उन भारतवासियों के बारे में सोचेंगे जो एक समय आज भी भूखे सोते है????क्या कभी हमारे नेता इन ऊंची इमारतों .के पीछे अंधेरे में सिसकती उन झोपड़ पट्टियों को देख पाएंगे जो इंडिया पर एक पाबन्द की भांति है....!इन में रहने वालों और गाँवों में रहने वालों में कोई अन्तर नहीं है.....!यहाँ बसने वाला ही सही भारत है जिसे कोई इंडियन देखना पसंद नहीं करता,लेकिन जब ये सुखी होंगे तभी इंडियन सुखी रह पंगे..पाएंगे...इस इंडिया और भारत की दूरी को पाटना बहुत जरूरी है....!ये दोनों मिल कर ही देश को विकसित बना सकते है....!

सोमवार, 10 अगस्त 2009

तुम जियो हजारों साल...








आप जिओ हज़ारों साल,
साल के दिन हों पचास हज़ार
ये दिन आये बारम्बार,
आये आपके जीवन में बहार !
"युवा" टीम के सक्रिय ब्लागर और हिन्दी साहित्य के चमकते सितारे कृष्ण कुमार यादव जी को जन्म-दिवस की ढेरों बधाइयाँ.
















प्रशासन-साहित्य में सुदृढ़ पकड़ किये
मनस्वी की विनम्रता का भी मान है
ऐसे कर्मवीर ही प्रेरणा बनते हैं
कलम लिख गाथा बांटती सम्मान है

साहित्य और प्रशासन की दुनिया में
जिनका जन-जन में है आदर-सम्मान
ऐसे श्री कृष्ण कुमार यादव जी का
विद्वान्-मनीषी भी करते हैं मान

भारतीय डाक सेवा के अधिकारी बन
अपने कृतित्व-मान को और बढ़ाया
प्रशासन और साहित्य का हुआ समन्वय
इस बेजोड़ संतुलन ने सबको चैंकाया

कई विधाओं में उनकी रचनायें
यत्र-तत्र होती रहतीं सतत प्रकाशित
श्री कृष्ण कुमार की साहित्यधर्मिता से
राष्ट्रभाषा हिन्दी हो रही सुवासित

लगभग दो सौ पत्र-पत्रिकाओं में
रचनाएं अब छपती हैं बारम्बार
कविता, कहानियाँ, व्यंग्य, निबंध और
समीक्षाएं, संस्मरण एवं साहित्य-सार

गद्य-पद्य शैली में सिद्धहस्त हैं आप
और लिखते हैं अतिशय व्यंग्य सटीक
काव्य में उभारें आप मृदुल अभिव्यक्ति
कहानियां हैं समाज की स्पष्ट प्रतीक

शब्द-शब्द की अपार सम्पदा से
लेख और निबंध रचते वह विशेष
विद्वत जनों को कर रहे प्रभावित
कुछ भी नहीं रहा यहाँ अवशेष

आकाशवाणी से सुन सरस कविता
श्रोताजन होते खूब भाव-विभोर
शब्द-कथ्य और भाव की सुभग त्रिवेणी
कलकल बहती है जो चारों ओर

संचार क्रान्ति के इस नये दौर में
इण्टरनेट का आया ऐसा जमाना
अंतरजाल पर पत्रिकायें खूब चलें
कृष्ण कुमार जी का भी गायें तराना

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के संयोजक
बद्रीनारायण तिवारी जी सस्नेह
साथ मिल बैठें तो देखें चकित सब
फैले चारों तरफ बस ज्ञान का मेह

प्रथम काव्य संकलन ‘अभिलाषा‘ रच
विद्वत जनों का खूब स्नेहाशीष पाया
‘नीरज‘ जी ने की भूरि-भूरि प्रशंसा
सूर्यप्रसाद दीक्षित ने मनोबल बढ़ाया

‘अभिव्यक्तियों के बहाने‘ निबन्ध संग्रह
फिर ‘अनुभूतियाँ और विमर्श‘ भी आया
गिरिराज किशोर जी ने किया विमोचन
पत्र-पत्रिकाओं में जमकर चर्चा पाया

‘साहित्य सम्पर्क‘ पत्रिका से जुड़े
बने ‘कादम्बिनी क्लब‘ के संरक्षक
अल्पायु में ही खूब नाम कमाकर
श्री कृष्ण कुमार बने हिन्दी के रक्षक

आपकी अप्रतिम प्रतिभा का आकलन
करते सुविज्ञ-जन हो करके हर्षित मन
संस्थायें देकर उपाधियां व अलंकरण
करती हैं सहर्ष स्वागत एवं अभिनन्दन

प्रशासन की अतिव्यस्तताओं के बीच
करते हैं निरन्तर सारस्वत-साधना
हर क्षेत्र में खूब यश-कीर्ति कमायें
होती रहें पूर्ण सब मनोकामना

ज्ञानवान, सुयशी, सराहनीय रहें सदा
प्रगति के मान् विश्व में बनायें आप
प्रशासन-साहित्य में रहें वंदनीय
अभिनन्दनीय मनीषी कहायें आप

वाणी के वरद पुत्र! तुम बनो मनस्वी
निज प्रबुद्ध रचनाओं से बनो यशस्वी
जगदीश्वर से है प्रार्थना हमारी
नित्य फूले-फले आपकी फुलवारी।
(कृष्ण कुमार जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर प्रकाशित पुस्तक "बढ़ते चरण शिखर की ओर" से साभार)

(कृष्ण कुमार जी पर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति-उत्तर प्रदेश के संयोजक एवं पूर्व अध्यक्ष-उ0प्र0 हिन्दी साहित्य सम्मेलन डा0 बद्री नारायण तिवारी जी द्वारा रचित लेख "प्रशासन और साहित्य के ध्वजवाहक : कृष्ण कुमार यादव" युवा ब्लाग पर देख सकते हैं)

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

आज का सच !!

प्रथम रश्मि का आना
अब किसने है जाना?
पक्षी तो गुम हैं ,
जो हैं,उन्हें आभास नहीं,
दिन चढ़ आया है !
कमरे के अन्दर सुबह खर्राटे लेती है,
१२ बजे आँखें खोलती है,
आधी रात को गुड नाईट करती है!
सारे जोड़-घटाव ,
उल्टे बहाव में हैं ,
जीवन की भागदौड़ में,
सबकुछ उल्टा हो चला है !!

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

अंतर

सारी रात

आँखों की बारिश में

दर्द के ओले गिरते गए ...

उन्हें फोटोग्राफी का जूनून है

लेते गए तस्वीर.....

तस्वीर की बेबस मुस्कान

शर्मीली मुस्कान बनी

लाल आँखें हया का आइना बनी

सब्ज़ ओले बर्फ हो गए.............

हकीकत और चित्र में कितना अंतर होता है

सोमवार, 3 अगस्त 2009

इन सीरियल्स से हमें बचाओ



आज के समय में जितने टी वी .चैनल बढे है उतने ही विवाद भी !हर चैनल हर रोज ये नए शो लेकर आ रहा है जिनका मकसद हमारे मनोरंजन से ज्यादा अपनी टी आर पी को बढ़ाना होता है!हर कोई नई चीज़ पेश करने के चक्कर में हमें घनचक्कर बना रहा है जैसे की हमने अपनी फरमाइश पर इन्हे बनवाया हो..!ये बार कहते है आपकी भारी मांग पर इसे पुनः टेलीकास्ट कर रहे है जबकि हम तो इन्हे एक बार भी नहीं देखना चाहते...!एक सीरीयल आता है ...."इस जंगल से मुझे बचाओ"...भाई हमने कब कहा था की जंगल में जाओ,जो अब हम सब काम छोड़ कर आपको बचाएं...!!इसी तरह "सच का सामना"में तथाकथित सच बोलने वाले हमें बिना मतलब बच्चों के सामने शर्मिंदा कर रहे है....सच बोल कर..!अगर ये सच इतना ही बोझ बना हुआ था तो .मन्दिर...,मस्जिद या गुरूद्वारे में जाकर गलती मानो,स्वीकार करो या अपने घर वालों के सामने आँख उठा कर बात करो ...हमें नाहक ही क्यूँ परेशान करते हो ?इधर राखी सावंत अपना अलग ड्रामा चला के बैठी है.....सब को पता है ..ये शादी नहीं करेगी...पर कईयों की करवा जरूर देगी ..!कुछ लोग कहते है की आप देखते क्यूँ हो ?टी वी बंद कर दो ?अरे .भाई...पहली बात तो बच्चे रिमोट को छोड़ते नही और ..दूसरे आप इतनी इतनी बार रीपीट काहे करते हो भाई?इधर नयूज वाले सारे दिन कहते है देखिये क्या होगा राखी का?कौन बनेगा दूल्हा?एक चैनल ने तो ख़बर चला दी ...राखी के सवयम्बर .का रिजल्ट आउट!!!!!और ऊपर से .सारे दिन आते ये ........ऐड...!!!क्या करे दर्शक????मैं पूछना चाहता हूँ की इन से हमें क्या प्रेरणा मिलती है?ये समाज को क्या देना चाहते है...?विदेश में परिवेश अलग है ..वहां के हिट शो यहाँ भी हिट होंगे .....ये जरूरी तो नहीं?फ़िर इनकी भोंडी नक़ल करने का क्या तुक?????हमारे अपने देश में ऐसे अनेक विषय है जिन पर हजारों शो बन सकते है...फ़िर ये बेतुका प्रदर्शन क्यूँ????मुझे याद है दूरदर्शन के वो दिन ..जब एक पत्र के लिखने से कार्यकर्म बदल जाता था.....!उन दिनों आन्मे वाला सुरभि नामक सीरीयल तो लोग आज भी याद करते है .......!और एक ये सीरीयल है जिनसे हर कोई बचना चाहता है....!.केवल हल्ला करने से कोई सीरीयल हिट नहीं होता है और ना ही ये लोकप्रियता का कोई पैमाना है !आख़िर समाज के प्रति कोई जवाब देही भी होनी चाहिए?? [फोटो-गूगल से .साभार ]

शनिवार, 1 अगस्त 2009

फ्रेण्डशिप-डे: ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे

मित्रता किसे नहीं भाती। यह अनोखा रिश्ता ही ऐसा है जो जाति, धर्म, लिंग, हैसियत कुछ नहीं देखता, बस देखता है तो आपसी समझदारी और भावों का अटूट बन्धन। कृष्ण-सुदामा की मित्रता को कौन नहीं जानता। ऐसे ही तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं जहाँ मित्रता ने हार जीत के अर्थ तक बदल दिये। सिकन्दर-पोरस का संवाद इसका जीवंत उदाहरण है। मित्रता या दोस्ती का दायरा इतना व्यापक है कि इसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। दोस्ती वह प्यारा सा रिश्ता है जिसे हम अपने विवेक से बनाते हैं। अगर दो दोस्तों के बीच इस जिम्मेदारी को निभाने में जरा सी चूक हो जाए तो दोस्ती में दरार आने में भी ज्यादा देर नहीं लगती। सच्चा दोस्त जीवन की अमूल्य निधि होता है। दोस्ती को लेकर तमाम फिल्में भी बनी और कई गाने भी मशहूर हुए-ये तेरी मेरी यारी/ये दोस्ती हमारी/भगवान को पसन्द है/अल्लाह को है प्यारी। ऐसे ही एक अन्य गीत है-ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे/छोड़ेंगे दम मगर/तेरा साथ न छोड़ेंगे। हाल ही में रिलीज हुई एक अन्य फिल्म के गीतों पर गौर करें- आजा मैं हवाओं में बिठा के ले चलूँ/ तू ही-तू ही मेरा दोस्त है।

दोस्ती की बात पर याद आया कि 2 अगस्त को ‘फ्रेण्डशिप-डे‘ है। यद्यपि मैं इस बात से इत्तफाक नहीं रखती कि किसी संबंध को दिन विशेष के लिए बांध दिया जाय, पर उस दिन को इन्ज्वाय करने में कोई हर्ज भी नहीं दिखता। फ्रेण्डशिप कार्ड, क्यूट गिफ्ट्स और फ्रेण्डशिप बैण्ड से इस समय सारा बाजार पटा पड़ा है। हर कोई एक अदद अच्छे दोस्त की तलाश में है, जिससे वह अपने दिल की बातें शेयर कर सके। पर अच्छा दोस्त मिलना वाकई एक मुश्किल कार्य है। दोस्ती की कस्में खाना तो आसान है पर निभाना उतना ही कठिन। आजकल तो लोग दोस्ती में भी गिरगिटों की तरह रंग बदलते रहते हैं। पर किसी शायर ने भी खूब लिखा है-दुश्मनी जमकर करो/लेकिन ये गुंजाइश रहे/कि जब कभी हम दोस्त बनें/तो शर्मिन्दा न हों।


फिलहाल, फ्रेण्डशिप-डे की बात करें तो यह अगस्त माह के प्रथम रविवार को सेलीबे्रट किया जाता है। अमेरिकी कांग्रेस द्वारा 1935 में अगस्त माह के प्रथम रविवार को दोस्तों के सम्मान में ‘राष्ट्रीय मित्रता दिवस‘ के रूप में मनाने का फैसला लिया गया था। इस अहम दिन की शुरूआत का उद्देश्य प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उपजी कटुता को खत्म कर सबके साथ मैत्रीपूर्ण भाव कायम करना था। पर कालान्तर में यह सर्वव्यापक होता चला गया। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े, इसके मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र संघ ने बकायदा 1997 में लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती के राजदूत के रूप में पेश किया।

इस फ्रेण्डशिप-डे पर बस यही कहूंगी कि सच्चा दोस्त वही होता है जो अपने दोस्त का सही मायनों में विश्वासपात्र होता है। अगर आप सच्चे दोस्त बनना चाहते हैं तो अपने दोस्त की तमाम छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी बातों को उसके साथ तो शेयर करो लेकिन लोगों के सामने उसकी कमजोरी या कमी का बखान कभी न करो। नही तो आपके दोस्त का विश्वास उठ जाएगा क्योंकि दोस्ती की सबसे पहली शर्त होती है विश्वास। हाँ, एक बात और। उन पुराने दोस्तों को विश करना न भूलें जो हमारे दिलों के तो करीब हैं, पर रहते दूरियों पर हैं।
आकांक्षा यादव

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

लेखन से पिरोती साहित्य की माला: आकांक्षा यादव

(आज आकांक्षा जी का जन्मदिन है. वे न सिर्फ "युवा" ब्लॉग की सक्रिय सदस्य हैं बल्कि बहुविध व्यक्तित्व को अपने में समेटे एवं साहित्यिक सरोकारों से अटूट लगाव रखने वाली एक प्रतिभाशाली युवा कवयित्री व लेखिका हैं. स्वभाव से सहज, सौम्य, विनम्र व संस्कारों की लड़ी से सुवासित आकांक्षा यादव जी के जन्मदिन पर कानपुर से "सांस्कृतिक टाईम्स" की संपादिका निशा वर्मा जी ने यह लेख हमें भेजा है. निशा जी के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं. इस लेख को प्रकाशित करते हुए हम आकांक्षा जी के स्वस्थ, दीर्घायु, समृद्ध एवं यशस्वी जीवन की कामना करते हैं और जन्म-दिन की ढेरों शुभकामनायें देते हैं !!)
मुंशी प्रेमचन्द का कहना था कि-‘‘सुन्दरता को अलंकारों की जरूरत नहीं है, कोमलता अलंकारों का भार नहीं सह सकती।‘‘ विद्वान गेटे के अनुसार-‘‘सौन्दर्य का आदर्श सादगी और शान्ति है।‘‘ एक चीनी कहावत भी है कि-‘‘बिना सद्गुणों के सुन्दरता अभिशाप है।‘‘ सीरत की खुशबू व्यक्ति के व्यवहार और बौद्धिकता को सुरक्षित करती है। जिसके पास सूरत और सीरत दोनों हो, तो सोने पर सुहागा हो जाता है। भारतीय संस्कृति में तमाम ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ शिक्षा एवं साहित्य के अद्भुत समन्वय द्वारा नये प्रतिमानों की स्थापना हुई है। शिक्षा व्यक्ति में ज्ञान उत्पन्न करती है तो साहित्य संवेदना की संपोषक है। इस परम्परा में तमाम ऐसे व्यक्तित्व देखे जा सकते हैं जो अपने विषय के विद्वान होने के साथ-साथ साहित्यिक गतिविधियों में भी उतने ही सक्रिय रहे हैं। इसी क्रम में बहुविध व्यक्तित्व को अपने में समेटे देववाणी संस्कृत की प्रवक्ता एवं साहित्यिक सरोकारों से अटूट लगाव रखने वाली आकांक्षा यादव का नाम भी शामिल है। स्वभाव से सहज, सौम्य, विनम्र व संस्कारों की लड़ी से सुवासित आकांक्षा यादव एक प्रतिभाशाली कवयित्री व लेखिका हैं। आपका जन्म 30 जुलाई 1982 को सैदपुर, गाजीपुर में हुआ। आपके पिता श्री राजेन्द्र प्रसाद एवं माता श्रीमती सावित्री देवी सैदपुर में नगरपालिका अध्यक्ष रहे एवं वर्तमान में समाज सेवा में रत हैं। उच्च शिक्षा से आपके परिवार का अभिन्न नाता रहा है। आपके बड़े भाई श्री पीयूष कुमार आई0आई0टी0 रूड़की से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में उप महाप्रबन्धक, मंझले भाई श्री समीर सौरभ लखनऊ विश्वविद्यालय से एल0एल0बी0 करने के बाद उत्तर प्रदेश में उप पुलिस अधीक्षक, एवं श्री अश्विनी कुमार आई0आई0टी0 कानपुर से शिक्षा पश्चात गुजरात कैडर के 1997 बैच के आई0 ए0 एस0 अधिकारी के रूप में जूनागढ़ के जिलाधिकारी पद पर कार्यरत हैं। ऐसे में आकांक्षा जी का साहित्य की ओर रूझान पहली नजर में चैंकाता है। आपने प्राथमिक शिक्षा दयानन्द बाल विद्या मन्दिर, सैदपुर से एवं हाईस्कूल व इण्टर की शिक्षा क्रमशः 1996 व 1998 में राजकीय बालिका इण्टर कालेज, सैदपुर से प्राप्त की। वर्ष 2001 में संस्कृत, हिन्दी और राजनीति शास्त्र विषयों के साथ आपने पं0 दीन दयाल उपाध्याय राजकीय महाविद्यालय, सैदपुर से स्नातक और वर्ष 2003 में स्नाकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर से संस्कृत में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। फिलहाल लोक सेवा आयोग, उत्तर प्रदेश से चयनित होकर आकांक्षा यादव राजकीय बालिका इण्टर काॅलेज, नरवल कानपुर में प्रवक्ता (संस्कृत) के पद पर कार्यरत हैं।

आकांक्षा यादव ने अपने लेखन की शुरूआत कविता से की और बाद में अन्य विधाओं से भी जुड़ीं। साहित्यिक विधाओं में कविता इस दृष्टि से विशिष्ट है कि इसमें आत्माभिव्यक्ति की अकुलाहट सबसे ज्यादा देखी जाती है। एक कवयित्री के रूप में आकांक्षा जी ने बहुत ही खुले नजरिये से संवेदना के मानवीय धरातल पर जाकर अपनी रचनाधर्मिता का विस्तार किया है। बिना लाग लपेट के सुलभ भाव भंगिमा सहित जीवन के सत्य उभरें यही आपकी लेखनी की शक्ति है। आपकी कविताओं में जहाँ जीवंतता है वहीं उसे सामाजिक संस्कार भी दिया है। चरित्र कहानी की पहचान है और बिम्ब कविता की। कविता में प्रयुक्त शब्द का आशय शब्द की कैद से आजाद हो उठता है, तभी कविता को अतल गहराई और अनंत विस्तार मिलता है। उन्होंने कविता को परिभाषित करने का उपक्रम यूँ किया है- जज्बातों के गुंफन से/ रचती है कविता/जीवन की लय-ताल से/सँवरती है कविता (अनुभूति, मई 2008)। निश्चिततः ये पंक्तियाँ उनकी रचनात्मकता की भाव-भूमि का खुलासा करने में नितांत सक्षम हैं। इसी प्रकार ‘संपूर्ण बनूँ‘ कविता में वे लिखती हैं- तुम गीत कहो, मैं पंक्ति बनूँ/तुम कहो गजल, मैं शब्द बनूँ/बिन तेरे मेरा वजूद है क्या/हो शब्द तेरे, मैं भाव बनूँ (गोलकोण्डा दर्पण, मई 2008)। आकांक्षा युवा हैं और नारी हैं, सो इनके अन्तद्र्वन्दों से भलीभांति परिचित हैं। ‘कादम्बिनी’ (दिसम्बर 2005) में ‘युवा बेटी’ शीर्षक से आपकी प्रथम कविता प्रकाशित हुईं। यह आधुनिक सुशिक्षित आत्मनिर्भर नारी के विचारों का सटीक व सशक्त प्रतिनिधित्व करती है- ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है/वह उतनी ही सचेत है/अपने अधिकारों को लेकर/जानती है/स्वयं अपनी राह बनाना (कादम्बिनी, दिसम्बर 2005)। इसी प्रकार ‘एक लड़की’ कविता में बेबसी की सहज भावात्मक अभिव्यक्ति है। जो लोग जीती-जागती लड़की को वस्तु की तरह ठांेक-बजाकर देखते है, उन पर तीक्ष्ण कटाक्ष किया गया है- कोई उसके रंग को निहारता/तो कोई लम्बाई मापता/पर कोई नहीं देखता/उसकी आँखों में/जहाँ प्यार है, अनुराग है/लज्जा है, विश्वास है (साहित्य अमृत, जुलाई 2007)। मासूम भावनाओं व सौंदर्य बोध का ‘अहसास‘ कराती कविताएं भी आपने रची हैं- लौकिकता की/सीमा से परे/अलौकिक है/अहसास तुम्हारा (गृहशोभा, जुलाई 2006)। मातृत्व की अनुभूति की नितान्त स्नेहिल अभिव्यक्ति को मर्मस्पर्शी भंगिमा के साथ सीधे-सीधे पाठक तक संप्रेषित करने का प्रयत्न ‘मातृत्व‘ में किया गया है- उसके आने के अहसास से/सिहर उठती हूँ/अपने अंश का/एक नए रूप में प्रादुर्भाव (साहित्य जनमंच, सितम्बर 2007)।

आकांक्षा यादव किसी तकनीक को सिर्फ उसके बाहरी रूप रंग और प्रभाव के आधार पर नहीं देखतीं, बल्कि उसके पीछे मानवीय भावनाओं की सिकुड़न को भी महसूस करती हैं- एस0 एम0 एस0 के साथ ही/शब्द छोटे होते गए/भावनाएँ सिमटती गईं/लघु होता गया सब कुछ/रिश्तों की कद्र का अहसास भी (पुनर्नवा, दैनिक जागरण, 29 सितम्बर 2006)। ‘सिमटता आदमी’ कविता में भी भूमण्डलीकरण के दौर में आदमी के सिमटते जाने की नियति का चित्रण है- देखता है दुनिया को/टी0 वी0 चैनल की निगाहों से/पर नहीं देखता/पास-पड़ोस का समाज (युगतेवर, मार्च-मई, 2007)। वर्तमान दौर की विद््रूपताओं पर भी आकांक्षा जी ने कलम चलायी- आपाधापी के इस दौर में/कोई नहीं जानता कि/देर शाम को वे/एक-दूसरे के पास/होंगे भी या नहीं (कलायन, दिसम्बर 2008)। आपकी कवितायें स्थूल वर्णन से हटकर अनुभूतिगत तरलता और सांद्रता के साथ व्यंजित हुई हैं और इसी कारण वे अधिक प्रभावशाली हो गयी हैं। इन रचनाओं में समाज के निचले वर्ग की वेदना और निराशा को भी वाणी मिली है- पर नहीं सुनता कोई उनकी/चैनलों पर लाइव कवरेज होता है/लोगों की गृहस्थियों के/श्मशान में बदलने का (प्रगतिशील आकल्प, अप्रैल-जून 2007)। आकांक्षा जी में अपने आस-पास की जिन्दगी को खुली आँखों से देखने की सामथ्र्य है और मानवीय रिश्तों के साथ जीवन के विविध आयामों का निदर्शन करने का सत्साहस भी। बढ़ते पर्यावरण असंतुलन से विकल हो रही पृथ्वी की वेदना को भी वे शब्द देती हंै- कंक्रीटों की इस दुनिया में/तपिश सहना भी हुआ मुश्किल/मानवता के अस्थि-पंजर टूटे/पृथ्वी नित् हो रही विकल (सीप, अक्टूबर-दिसम्बर 2008)। निश्चिततः उन्होंने अपने मनोभावों को जो शब्दाभिव्यक्ति दी है, वह विलक्षण है और अन्तर्मन से विशु़द्ध साहित्यिक है। समकालीन कवियों की कविताओं पर दुर्बोधता के कारण उनकी ग्रहणीयता या आस्वादकता पर जो प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है, वह आकांक्षा जी की कविताओं में नहीं है।

इसी प्रकार अनेक कविताएं हैं जो भिन्न-भिन्न रंगों में लिखी गई हैं। मन के सुुकुमार भावों के स्पंदन, कविता की किलकारियों के रूप में स्वतः ही गूँॅंज उठे हैं। कहीं कोई कृत्रिमता नहीं, कहीं कोई मलाल नहीं। जो कविता सहज रूप में अभिव्यक्त हो, वही जिन्दा रहती है। वह समाज की अन्तरात्मा को अन्दर तक छू जाती है। आकांक्षा जी की कविता पाठकों को ऐसे भाव लोक में ले जाती है, जहाँ कविता कवि की न होकर पाठकों की हो जाती है। रचना और संवेदना को विराट फलक पर यथार्थ से जोड़ने की सार्थक पहल में आकांक्षा यादव सफल हुई हंै। सबसे प्रसन्नता की बात तो यह है कि आपका आत्म बहुत सीमित नहीं है और उसमें निकटवर्ती परिवेश से लेकर दूर-दराज की दुनिया तक प्रतिबिंबित है। आपकी रचनाओं में बदलते हुए समय में बदलते हुए मनुष्य के हालात का अच्छा भाव बिम्ब देखने को मिलता है। इसी प्रकार आपकी कविताओं में विविधता के साथ एक सच्चाई है, जो अनेक बार हृदय पर सीधे चोट करती है।

अपनी सशक्त रचनाधर्मिता को लोगों तक पहुँचाने के लिए आकांक्षा यादव सिर्फ पत्र-पत्रिकाओं तक ही सीमित नहीं हैं। जहाँ सौ से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कवितायें, लेख एवं लघु कथायें निरन्तर प्रकाशित हो रही हैं, वहीं आपकी कवितायें एक दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित काव्य-संकलनों में भी स्थान बना चुकी हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में आप अंतर्जाल पर भी सक्रिय हैं एवं सृजनगाथा, अनुभूति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, शब्दकार, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, कलायन, युगमानस, स्वर्गविभा, कथाव्यथा इत्यादि वेब-पत्रिकाओं पर आपकी रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। शब्द शिखर शीर्षक से आप एक ब्लाॅग का भी संचालन करती हैं, जहाँ पर रचनाओं के साथ-साथ आपके विचार प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। यही नहीं चोखेर बाली, युवा, नारी, नारी का कविता जैसे सामूहिक ब्लाॅगों पर भी आपकी अभिव्यक्तियाँ विस्तार पाती रहती हैं। सबसे सुखद बात तो यह है कि ब्लाॅग पर प्रकाशित आपकी रचनाओं व विचारों को प्रिन्ट मीडिया ने भी तरजीह दी है एवं हिन्दुस्तान, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा एवं आई नेक्स्ट जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में उनकी सारगर्भित चर्चा हुई है।

व्यक्ति के उत्कृष्ट कार्यों से सिर्फ उसी का उन्नयन नहीं होता बल्कि समाज व राष्ट्र का भी उन्नयन होता है। ऐसी प्रतिभाओं का सम्मान जहाँ उनकी पहचान स्थापित करता है, वहीं यह समाज का नैतिक दायित्व भी है। आकांक्षा यादव का मानना है कि शिक्षा और साहित्य के बिना हम अपनी सामाजिक तथा सांस्कृतिक विरासत को सजोकर रखने में सक्षम नहीं हो सकेंगे। सहज-सरल-सहृदय आकांक्षा जी का मन पीड़ित व दुःखी व्यक्ति को देखकर पिघल उठता है। व्यक्ति अपनी सभ्यता, संस्कार, सौम्यता व व्यवहारिक कुशलता से पहचाना जाता है ओर ऐसे लोगों से लोग बार-बार मिलना चाहते हैं। संस्कृति संस्कार से बनती है ओर सभ्यता नागरिकता का रूप है। संस्कृत विषय की कुशल प्रवक्ता होने के साथ-साथ साहित्यिक सरोकारों से गहरे जुड़ाव, राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार, रचनाधर्मिता, सतत् साहित्य सृजनशीलता एवं सम्पूर्ण कृतित्व हेतु तमाम प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं ने आकांक्षा जी को विभिन्न सम्मानों से विभूषित किया है। इनमें राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ‘‘भारती ज्योति‘‘, श्री मुकुन्द मुरारी स्मृति साहित्यमाला, कानपुर द्वारा ‘‘साहित्य श्री सम्मान‘‘, मध्य प्रदेश नवलेखन संघ द्वारा ‘‘साहित्य मनीषी सम्मान‘‘, छत्तीसगढ़ शिक्षक-साहित्यकार मंच द्वारा ‘‘साहित्य सेवा सम्मान‘‘, देवभूमि साहित्यकार मंच, पिथौरागढ़़ द्वारा ‘‘देवभूमि साहित्य रत्न‘‘, इन्द्रधनुष साहित्यिक संस्था, बिजनौर द्वारा ‘‘साहित्य गौरव‘‘ व ‘‘काव्य मर्मज्ञ‘‘, ऋचा रचनाकार परिषद, कटनी द्वारा ‘‘भारत गौरव‘‘, ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा ‘‘शब्द माधुरी‘‘, आसरा समिति, मथुरा द्वारा ‘‘ब्रज शिरोमणि‘‘, राजेश्वरी प्रकाशन, गुना द्वारा ‘‘उजास सम्मान‘‘, अभिव्यंजना, कानपुर द्वारा ‘‘काव्य कुमुद‘‘ सम्मान एवं भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘‘ सहित तमाम सम्मान शामिल हैं।

समाज में बिरले उदाहरण ही ऐसे मिलते हैं जहाँ पति और पत्नी दोनों ही साहित्य सेवा में रत हों। आकांक्षा जी के पति श्री कृष्ण कुमार यादव भारतीय डाक सेवा के अधिकारी होने के साथ-साथ अच्छे साहित्यकार भी हैं। आपने अपने पति के साथ मिलकर ‘‘क्रान्तियज्ञ: 1857-1947 की गाथा‘‘ नामक पुस्तक का सम्पादन भी किया है। इसका विमोचन भारत सरकार में मंत्रीद्वय श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया व श्री श्रीप्रकाश जायसवाल द्वारा किया गया। श्री कृष्ण कुमार यादव की अब तक पाँच पुस्तकें प्रकाशित हैं और आपके व्यक्तित्व-कृतित्व पर उमेश प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा एक पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर‘‘ का वर्ष 2009 में प्रकाशन किया गया। सुविख्यात समालोचक सेवक वात्स्यायन इस साहित्यकार दम्पत्ति को पारस्परिक सम्पूर्णता की उदाहृति प्रस्तुत करने वाला मानते हुए लिखते हैं-’’जैसे पंडितराज जगन्नाथ की जीवन-संगिनी अवन्ति-सुन्दरी के बारे में कहा जाता है कि वह पंडितराज से अधिक योग्यता रखने वाली थीं, उसी प्रकार श्रीमती आकांक्षा और श्री कृष्ण कुमार यादव का युग्म ऐसा है जिसमें अपने-अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कारण यह कहना कठिन होगा कि इन दोनों में कौन दूसरा एक से अधिक अग्रणी है।’’

आकांक्षा यादव की प्रतिभा स्वत: प्रस्फुटित होकर सामने आ रही है। आकांक्षा जी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर दहलीज, वुमेन ऑन टॉप, बाल साहित्य समीक्षा, गुफ्तगू, नेशनल एक्सप्रेस, दलित टुडे, सुदर्शन श्याम सन्देश, यादव ज्योति, यादव साम्राज्य, नवोदित स्वर जैसी तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने आलेख प्रकाशित किये हैं. दिल्ली से प्रकाशित नारी सरोकारों को समर्पित पत्रिका ‘‘वुमेन आॅन टाॅप‘‘ ने जून 2008 अंक में अपनी आवरण कथा ‘हम में है दम, सबसे पहले हम‘ में देश की तमाम प्रतिष्ठित नारियों में आपको स्थान दिया है, जिन्होंने अपनी बहुआयामी प्रतिभा की बदौलत समाज में नाम रोशन किया। इन नारियों में माधुरी दीक्षित, लता मंगेशकर, लारा दत्ता, तब्बू, हेमा मालिनी, उमा भारती, सुषमा स्वराज, वृंदा करात, पं0 रवि शंकर की बेटी नोरा जोन, सचिन पायलट की पत्नी सारा पायलट, फिल्म आलोचक व लेखिका अनुपमा चोपड़ा के साथ आपका नाम भी शामिल है। जीवन के लम्बे पड़ाव में ऐसे न जाने कितने स्वर्णिम पृष्ठ आपकी उपलब्धियों के भण्डार में जुड़ते जायेंगे और इसी के साथ आप का जीवन अपनी चरमता पर पहुँचता जायेगा। साहित्याकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र के रूप में आपकी उत्तरोत्तर प्रगति हो, यही कामना हैै। आपका जीवन उत्तरोत्तर नये आयामों के साथ विकसित होता रहे, आप यशस्वी और दीर्घस्वी हों, यही ईश्वर से प्रार्थना है। कृतित्व एवं व्यक्तित्व में ऐसा समन्वय दैव योग से ही होता है।
निशा वर्मा,सम्पादक-सांस्कृतिक टाइम्स, 106/63-ए, गाँधी नगर, कानपुर-208012

बुधवार, 22 जुलाई 2009

ये देश है मेरा ??

अपनी पिछली पोस्ट में मैंने लिखा था की हमें बेवजह विदेशियों के लिए पलकें पावडे नहीं बिछाना चाहिए !और लो उन्होंने साबित भी कर दिया..!एक विदेशी एयर लाइन ने पूर्व राष्ट्रपति के साथ जो सलूक किया वो हर भारतीय के लिए शर्मनाक है !ऊपर से तुर्रा ये की हम..सब.... से बराबरी का व्यहवार करते है,तो क्या जनाब ओबामा के साथ भी ऐसे,लेकिन अफ़सोस तब नहीं !क्योंकि भारतियों को अपमान सहने की आदत सी हो गई है ना !पहले तो वे अपने अपने देशों में अपमानित करते थे ,अब हमारे देश में भी वे हमारा अपमान करेंगे..!क्या एयर लाइन को विशिष्ट अतिथियों की गाइड लाइन का पता नही?क्या वे पूर्व राष्ट्रपति को जानते नही?क्या सुरक्षा के नाम पर जूते उतरवाए जाते है?साफ़ है की उनका मकसद अपमानित करना ही था...!और हम है की रत लगा राखी है...पधारो म्हारे देश ....!आओ हमारा अपमान करो,बीमारियाँ .फैलाओ...हमें बुरा नहीं लगता..! हमारे देश के नेता बहुत उदार है ,उनकी मोटी चमडी पर कुछ असर नहीं होता..!इसीलिए कभी कुछ नहीं होता !कभी जोर्ज फर्नांडिस तो कभी प्रणब मुखर्जी को जांच के नाम पर कपड़े उतारने पड़ते है..!कभी भी विदेशी नेताओं से हम ऐसा करने की हिमाकत कर सकते है?शायद नहीं.....!हर विदेशी चीज़ को भाग कर अपनाने वाले क्या अपमान करना भी अपना पायेंगे? नहीं...क्यूंकि हम तो अपमान सहना जानते है करना नहीं.....!

सोमवार, 20 जुलाई 2009

प्रतियोगी परीक्षाओं में महिलाओं की फीस माफ

केंद्र सरकार अपने यहां होने वाली नियुक्तियों के मामले में महिलाओं पर खासा मेहरबान हो गई है। अब केंद्र द्वारा संचालित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में महिलाएं बगैर कोई फीस दिए शामिल हो सकती हैं। यानी उनकी फीस माफ कर दी गई है। सरकार की ओर से कहा गया है कि संघ लोक सेवा आयोग [यूपीएससी] व कर्मचारी चयन आयोग [एसएससी] द्वारा आयोजित होने वाली सीधी भर्ती, विभागीय प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने के लिए महिला प्रत्याशियों को अब फीस नहीं देनी होगी। इसके साथ ही आयोग द्वारा लिए जाने वाले साक्षात्कार के लिए भी उन्हें कोई फीस नहीं देना पड़ेगा। हाल ही में केंद्र सरकार ने सभी मंत्रालयों और विभागीय सचिवों, यूपीएससी और कर्मचारी चयन आयोग के संबंधित अधिकारियों को इस बारे में एक पत्र लिखा है। इसमें केंद्र सरकार की नौकरियों में महिलाओं को ईमानदारी पूर्वक बेहतर प्रतिनिधित्व देना सुनिश्चित करने के लिए कहा गया है।

सरकारी दिशा-निर्देशों की श्रृंखला में यह भी कहा गया है कि चयन समिति का संयोजन ऐसे किया जाना चाहिए ताकि उसमें महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके। दस या उससे अधिक रिक्तियों के लिए चयन समिति का जब गठन हो तो उसमें एक महिला सदस्य का होना अनिवार्य हो। महिलाओं की नियुक्ति के रुझान पर नजर रखने के लिए सभी मंत्रालयों और विभागों से 31 अगस्त तक कुल पदों व कर्मचारियों की संख्या पर सिलसिलेवार रिपोर्ट देने के लिए कहा गया है।

गौरतलब है कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद के दोनों सदनों के संयुक्त संबोधन के दौरान सरकारी नौकरियों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए ठोस उपाय करने को कहा था। इसी के बाद सरकार ने यह कदम उठाया है। सरकार नौकरियों में शारीरिक रूप से अपंग व्यक्तियों का भी विशेष ध्यान रख रही है। हाल के आदेश में कहा गया है कि नौकरी में आने के बाद अपंग हो जाने वाला सरकारी कर्मचारी जिस दिन इसका उचित प्रमाण पेश कर दे, उसी दिन से वह विकलांग कोटे में आरक्षण का लाभ पाने का हकदार होगा।
(साभार: जागरण)
आकांक्षा यादव

बुधवार, 15 जुलाई 2009

पधारो म्हारे देश, लेकिन...

जी हाँ..यही हमारे देश की संस्कृति है...~!राजस्थान टूरिजम का तो नारा भी यही है..पधारो म्हारे देश...!पर्यटक हमारे देश के मेहमान है,वे हमारे यहाँ आते है ,खर्चा करते है और हमारे देश से अच्छी यादें लेकर जाते है !यहाँ तक तो ठीक है लेकिन बदले में वे हमें जो नुक्सान पहुँचा रहे है ,उस और ध्यान देना जरूरी है!वे नई नई बीमारियाँ लेकर आ रहे है यहाँ लोगों से घुल मिल कर वे इनका प्रसार कर रहे है !अख़बारों में प्रकाशित रिपोर्ट्स के अनुसार ऐसी अनेक बीमारियाँ जो भारत में प्रचलित नहीं थी ,इन विदेशी मेहमानों द्वारा आ रही है..!और देखिये हमारी सरकार इनके प्रति कितनी उदार है जो इन्हे बिना जांचे परखे सर आँखों पर बिठा रही है..!आपको याद होगा .की किस तरह आस्ट्रेलिया दौरे पर हवाई अड्डे पर भारतीय खिलाड़ियों के जूते उतरवा लिए गए थे..?और एक बार भारतीय मंत्री जी को नंगे होकर तलाशी देनी पड़ी थी...फ़िर हम क्यूँ इतने उदार बने हुए है?आज जरूरी है की हम पूरी जांच पड़ताल के बाद ही इन मेहमानों का स्वागत करे....!बिमारियों के साथ साथ हमें इनकी सांस्कृतिक बुराइयों से भी बचना होगा...!